वाल्मीकि रामायण (भाग 19): अगला अध्याय और कथाओं का अवलोकन

 

वाल्मीकि रामायण (भाग 19): अगला अध्याय और कथाओं का अवलोकन

                     

वत्सदेश (प्रयाग) के वन में प्रवेश करने पर उन दोनों भाइयों ने भूख लगने पर कन्द-मूल आदि लेकर एक वृक्ष के नीचे ठहरने के लिए चले गए।

 

वहाँ बैठने पर श्रीराम ने अपने भाई से कहा, “लक्ष्मण! आज नगर से बाहर अपनी पहली रात है, जिसमें सुमन्त्र हमारे साथ नहीं हैं। आज से हम दोनों भाइयों को आलस्य त्यागकर रात में जागना होगा क्योंकि सीता की सुरक्षा हमारे ही अधीन है। यह रात हम लोग किसी प्रकार काटेंगे और स्वयं बटोरकर लाए गए तिनकों व पत्तों से शैय्या बना उसे भूमि पर बिछाकर किसी प्रकार उस पर सो लेंगे।

कुछ समय बाद लक्ष्मण ने कहा, “श्रीराम! आप अस्त्रधारियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। आपके चले आने से अब अयोध्या नगरी का तेज भी छिन गया होगा। माँ सीता और मैं आपके बिना एक क्षण भी जी...,.,.....,..,,,,...,.......,,,वित नहीं रह सकते, किन्तु इस प्रकार शोक करके आप हम दोनों को ही दुःख में डाल रहे हैं। आप व्याकुल न हों। इस प्रकार शोक करना आपके लिए उचित नहीं है।

 

इस प्रकार बहुत देर तक बातें करने के बाद श्रीराम व सीता थोड़ी ही दूर पर एक वटवृक्ष के नीचे लक्ष्मण द्वारा बनाई गई एक सुन्दर शैय्या पर सोने चले गए।

 

प्रातःकाल सूर्योदय होने पर उन लोगों ने आगे की यात्रा आरंभ की।

 

भागीरथी गंगा जहाँ यमुना से मिलती है, उस संगम-स्थल पर जाने के लिए वे लोग उस गहन वन से होकर यात्रा करने लगे। मार्ग में उन्हें फूलों से सुशोभित अनेक प्रकार के वृक्ष तथा ऐसे विभिन्न भूभाग व मनोरम क्षेत्र दिखाई दिए, जो उन्होंने पहले कभी नहीं देखे थे।

 

इस प्रकार बीच-बीच में रुककर आराम से चलते-चलते वे तीनों आगे बढ़ते रहे। जब दिन लगभग समाप्त होने को था, तब श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “सुमित्रानन्दन! वह देखो, प्रयाग के पास वह अग्नि की लपटें दिखाई दे रही हैं। इससे लगता है कि हम मुनिवर भरद्वाज के आश्रम के निकट आ पहुँचे हैं। दो नदियों का जल आपस में टकराने से जो नाद सुनाई देता है, वह भी सुनाई दे रहा है। वन में उत्पन्न होने वाले फल-मूल, लकड़ी आदि से अपना जीवनयापन करने वालों ने जो लकड़ियाँ काटी हैं, और जिन वृक्षों से काटी हैं, वे अनेक प्रकार के वृक्ष भी आश्रम के समीप दृष्टिगोचर हो रहे हैं।

 

इस प्रकार की बातें करते हुए वे दोनों भाई गंगा-यमुना के संगम के समीप मुनिवर भरद्वाज के आश्रम में आ पहुँचे।

 

आश्रम के निकट पहुँचकर उन्होंने अपने आगमन की सूचना वहाँ उपस्थित एक शिष्य के द्वारा भीतर भिजवाई तथा अनुमति मिलने पर उन्होंने महर्षि भरद्वाज के दर्शन के लिए पर्णशाला में प्रवेश किया। एकाग्रचित्त एवं तीक्ष्ण व्रतधारी महात्मा भरद्वाज ने महान तप के द्वारा दिव्य-दृष्टि प्राप्त की थी। इस समय अग्निहोत्र करके वे अपने आसन पर विराजमान थे एवं उनके शिष्य उनके चारों ओर बैठे हुए थे।

 

महर्षि को देखते ही श्रीराम, सीता व लक्ष्मण ने आदरपूर्वक उनके चरणों में प्रणाम किया। तत्पश्चात अपना परिचय देते हुए श्रीराम ने कहा, “भगवन्! हम दोनों राजा दशरथ के पुत्र हैं। मेरा नाम राम व इनका लक्ष्मण है तथा ये विदेहराज जनक की पुत्री सीता मेरी पत्नी हैं। पिता की आज्ञा से मैं वन में आया हूँ और ये दोनों भी इस निर्जन वन में मेरे साथ ही रहने का संकल्प करके साथ-साथ चले आए हैं। हम तीनों तपोवन में जाएँगे और फल-मूल का आहार करते हुए वहाँ धर्म का आचरण करेंगे।

 

यह सुनकर मुनि भरद्वाज ने आतिथ्य सत्कार के रूप में उन्हें एक गाय व अर्घ्य के लिए जल समर्पित किया। इसके पश्चात जब श्रीराम अपने आसन पर विराजमान हुए, तब महर्षि ने कहा, “श्रीराम! मैं दीर्घकाल से इस आश्रम में तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था। आज मेरा मनोरथ सफल हुआ। मैंने यह भी सुना है कि तुम्हें अकारण ही वनवास दिया गया है। गंगा व यमुना के संगम के निकट का यह स्थान बड़ा पवित्र एवं एकांत है। यहाँ की प्राकृतिक छटा भी अत्यंत मनोरम है, अतः अब तुम यहीं सुखपूर्वक निवास करो।

 

यह सुनकर श्रीराम बोले, “भगवन्! यह स्थान मेरे नगर व जनपद से बहुत निकट है। अतः अयोध्या के लोग बार-बार यहाँ मुझसे मिलने आते रहेंगे। इस कारण यहाँ निवास करना मुझे उचित नहीं लगता। कृपया हमें किसी एकांत क्षेत्र का कोई आश्रम बताइये, जहाँ जानकी प्रसन्नतापूर्वक रह सकें।

 

तब भरद्वाज मुनि ने कहा, “तात! यहाँ से लगभग 30 कोस (लगभग 80 मील) की दूरी पर एक सुन्दर एवं परम पवित्र पर्वत है, जिस पर अनेक महर्षि रहते हैं। उस पर बहुत-से लंगूर भी विचरते हैं तथा वानर एवं रीछ भी वहाँ निवास करते हैं। वह पर्वत चित्रकूट नाम से विख्यात है।

 

वह चित्रकूट पर्वत अनेक प्रकार के वृक्षों से हरा-भरा रहता है। वहाँ बहुत-से किन्नर एवं सर्प निवास करते हैं। मोरों के कलरव से वह स्थान अत्यंत रमणीय लगता है। उस पर्वत पर अनेक गजराज एवं हिरणों के झुण्ड भी विचरते हैं। तुम उन सबको वहाँ प्रत्यक्ष देखोगे। मन्दाकिनी नदी, अनेक जल-स्रोत, पर्वत शिखर, गुफा-कंदराएँ और झरने भी तुम्हें देखने को मिलेंगे। टिट्टिभ (टिटिहरी) व कोयल का कलरव वहाँ तुम्हारा मनोरंजन करेगा। मेरे विचार से वही स्थान तुम्हारे सुखद एकान्तवास के लिए सर्वथा योग्य रहेगा। अतः तुम चाहो तो वहाँ चले जाओ अथवा वनवास की अवधि तक मेरे इस आश्रम में ही रहो।

 

यह सब बातें करते-करते रात हो गई थी। तब महर्षि ने उन तीनों को अनेक प्रकार के अन्न, रस व जंगली फल-मूल प्रदान किये तथा उनके ठहरने की व्यवस्था की। दिन-भर वन में पैदल चलने के परिश्रम से वे तीनों अत्यधिक थक गए थे, अतः उस रात वे लोग भरद्वाज मुनि के उस आश्रम में ही सुखपूर्वक सोये।

 

प्रातःकाल श्रीराम ने महर्षि से कहा, “भगवन्! आपकी कृपा से हमने बड़े आराम से यहाँ रात बिताई है। अब आप हमें अगले गंतव्य पर जाने की आज्ञा प्रदान करें।

 

यह सुनकर महर्षि ने पुनः उन्हें चित्रकूट जाने का सुझाव दिया एवं उनकी मंगलमय यात्रा की कामना से स्वस्तिवाचन किया।

 

ततपश्चात महर्षि ने उनसे कहा, “रघुनन्दन! गंगा व यमुना के संगम पर पहुँचकर तुम लोग यमुना नदी के निकट जाना। गंगा के तीव्र वेग के कारण यमुना वहाँ अपने प्रवाह की विपरीत दिशा में घूमकर पश्चिम की ओर मुड़ गई है। वहाँ नियमित आने-जाने वाले लोगों के पदचिह्नों को ध्यान से देखते हुए तुम अच्छी तरह देख-भालकर पार उतरने के लिए उपयुक्त घाट पर पहुँचना। फिर एक बेड़ा बनाकर उसी के द्वारा तुम लोग सूर्यकन्या यमुना के उस पार उतर जाना।

 

वहाँ से आगे जाने पर तुम्हें एक बहुत बड़ा बरगद का वृक्ष मिलेगा, जिसके पत्ते गहरे हरे रंग के हैं और वह चारों ओर से कई अन्य वृक्षों से घिरा हुआ है। उसका नाम श्यामवट है। उसकी छाया के नीचे अनेक सिद्ध-पुरुष निवास करते हैं। वहाँ पहुँचकर सीता को दोनों हाथ जोड़कर उस वृक्ष से आशीर्वाद लेना चाहिए। उसके बाद इच्छा हो, तो उस वृक्ष के पास कुछ समय तक ठहरना अथवा वहाँ से आगे बढ़ जाना।

 

श्यामवट से एक कोस दूर जाने पर तुम्हें नीलवन मिलेगा, जहाँ सल्लकी (चीड़) और बेर के पेड़ हैं तथा यमुना तट पर उतपन्न होने वाले बाँसों के कारण वह और भी रमणीय दिखाई देता है। यही वह स्थान है, जहाँ से चित्रकूट का मार्ग जाता है। मैं स्वयं उस मार्ग से कई बार गया हूँ। वहाँ की भूमि कोमल और दृश्य अत्यंत रमणीय है। वहाँ दावानल (जंगल में लगने वाली आग) का भी कोई भय नहीं है।

 

ऐसा कहकर महर्षि ने उन्हें आशीर्वाद दिया और वापस लौट गए। उन्हें प्रणाम करके श्रीराम, लक्ष्मण व सीता भी अपने मार्ग की ओर आगे बढ़े।

 

यमुना-तट पर पहुँचकर उन तीनों देखा कि उसका प्रवाह अत्यधिक तीव्र था। अब वे लोग इस चिन्ता में पड़ गए कि इस नदी को कैसे पार किया जाए। तब उन दोनों भाइयों ने जगंल के सूखे बाँस बटोरकर एक बहुत बड़ा बेड़ा तैयार किया और उस पर खस बिछाया। लक्ष्मण ने बेंत व जामुन की टहनियों को काटकर सीता के बैठने के लिए एक सुखद आसन तैयार किया।

 

तब श्रीराम ने अपनी प्रिय पत्नी सीता को उस बेड़े पर चढ़ाया इसके पश्चात उन्होंने बड़ी सावधानी से अपनी खन्ती (कुदारी) और पिटारी को भी बेड़े पर रखा। तब दोनों भाई भी उस बेड़े पर सवार हुए और परिश्रमपूर्वक उसे खेने लगे।

 

यमुना की बीच धारा में पहुँचने पर सीता ने नदी को प्रणाम करके कहा, “देवी कालिन्दी! इस बेड़े के द्वारा मैं आपके पार जा रही हूँ। आप ऐसी कृपा करें कि हम लोग सकुशल पार हो जाएँ और मेरे पति अपने वनवास की प्रतिज्ञा को निर्विघ्न पूर्ण कर लें। वनवास के पश्चात् सकुशल अयोध्या लौटने पर मैं आपके तट पर एक सहस्त्र गौएँ दान करुँगी एवं सुरा के सौ घड़े भी अर्पित करुँगी।

 

कुछ ही समय में वे लोग नदी को पार करके उसके दक्षिणी तट पर आ पहुँचे। पार उतरने पर उन्होंने अपना बेड़ा वहीं छोड़ दिया और वे श्यामवट के पास पहुँचे। वहाँ पहुँचकर सीता ने हाथ जोड़कर पुनः प्रार्थना की।

 

जब सीता उस वृक्ष की पूजा कर रही थीं, उस समय श्रीराम ने उन्हें देखकर अपने भाई लक्ष्मण से कहा, “प्रिय भाई! तुम सीता को लेकर आगे-आगे चलो और मैं धनुष धारण किये पीछे से तुम लोगों की रक्षा करता हुआ चलूँगा। सीता जो भी फल या फूल माँगे अथवा जिस किसी वस्तु से उसका मन प्रसन्न रहे, वह सब तुम उसे देते रहना।

 

मार्ग में आगे बढ़ने पर सीता को ऐसे अनेक वृक्ष, झाड़ियाँ और पुष्पों से सजी लताएँ दिखीं, जो उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थीं। वे श्रीराम से उनके बारे में पूछती जा रही थीं और लक्ष्मण तुरंत ही उन वृक्षों की शाखाएँ और फूलों के गुच्छे लाकर उन्हें दे रहे थे। यमुना नदी की विचित्र बालू, वहाँ का जल व उसमें क्रीड़ा करते हंसों व सारसों के कलरव से सीता अत्यंत प्रसन्न हो रही थीं।

 

इस प्रकार आगे बढ़ते हुए मोरों के झुण्ड की मीठी बोली से गूँजते तथा हाथियों और वानरों से भरे हुए उस सुन्दर वन में लगभग एक कोस तक घूम-फिरकर वे लोग पुनः यमुना नदी के समतल तट पर आ गए और उस रात उन्होंने वहीं विश्राम किया।

 

              (आगे अगले भाग मेंस्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस)

 

                                   जय श्रीराम️पं रविकांत

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