वाल्मीकि रामायण (भाग 20): आगामी अध्याय और महत्वपूर्ण कथाएँ

 

       वाल्मीकि रामायण (भाग 20): आगामी अध्याय और महत्वपूर्ण कथाएँ

                        

प्रातःकाल श्रीराम ने लक्ष्मण को जगाकर कहा, “भाई! मीठी बोली बोलने वाले जंगली पक्षियों का कलरव सुनो। अब हमारे प्रस्थान के योग्य समय आ गया है।

 

फिर यमुना के शीतल जल में स्नान करके वे तीनों चित्रकूट के मार्ग पर आगे बढ़े। मार्ग में श्रीराम ने सीता से कहा, “विदेहराजनन्दिनी! इस वसंत ऋतु में खिले हुए इन पलाश के वृक्षों को तो देखो! इन पर इतने फूल खिले हैं, जिससे लगता है मानो इन वृक्षों ने अपने ही फूलों की माला पहन ली है। अपने लाल रंग के कारण ये प्रज्वलित प्रतीत होते हैं। ये भिलावे और बेल के पेड़ अपने फूलों व फलों के भार से झुक गए हैं। दूसरे मनुष्य इस गहन वन में नहीं आते हैं, इसलिए इन फलों-फूलों का उपयोग कोई नहीं कर रहा है। निश्चय ही हम इन फलों से जीवन-निर्वाह कर सकेंगे।

 

फिर उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! देखो तो यहाँ के एक-एक वृक्ष में मधुमक्खियों के कितने बड़े-बड़े छत्ते लटक रहे हैं। इनमें से प्रत्येक में एक-एक द्रोण (लगभग सोलह सेर) मधु होगा। वन का यह भाग बड़ा रमणीय है। यहाँ फूलों की वर्षा-सी हो रही है और सारी भूमि पुष्पों से ढँक गई है। उधर वह चातक बोल रहा है और इधर से मानो यह मोर उस पपीहे की बात का उत्तर दे रहा है।

 

ऐसी बातें करते हुए वे लोग आगे बढ़ते गए।

 

कुछ समय बाद श्रीराम ने कहा, “देखो! वह रहा चित्रकूट पर्वत। इसका शिखर बहुत ऊँचा है और हाथियों के अनेक झुण्ड उसी ओर जा रहे हैं। अनेक पक्षी भी चहक रहे हैं। चित्रकूट के कानन में समतल भूमि और बहुत-से वृक्ष हैं, अतः उसी में हम लोग भी बड़े आनन्द से रहेंगे।

 

यथासमय वे लोग रमणीय चित्रकूट पर्वत पर जा पहुँचे। वहाँ अनेक पक्षी थे व फल-मूलों की भी बहुतायत थी। वहाँ पर्याप्त मात्रा में स्वादिष्ट जल भी उपलब्ध था।

 

वहाँ पहुँचकर श्रीराम ने कहा, “सौम्य! यह पर्वत बड़ा मनोहर है। अनेक वृक्ष व लताएँ इसकी शोभा बढ़ा रही हैं। यहाँ अनेक महात्मा भी निवास करते हैं। हम भी यहीं निवास करेंगे।

 

ऐसा निश्चय करके उन सबने महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में प्रवेश किया एवं उनके चरणों में मस्तक झुकाया। उनके आगमन से महर्षि वाल्मीकि अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने तीनों का आदर-सत्कार करके उन्हें बैठने का स्थान दिया।

तब श्रीराम ने महर्षि को अपना यथोचित परिचय देने के बाद लक्ष्मण से कहा, “भाई लक्ष्मण! तुम जंगल से अच्छी-अच्छी मजबूत लकड़ियाँ ले आओ और रहने के लिए एक कुटी तैयार करो। मेरा अब यहीं रहने को जी चाहता है।

 

यह सुनकर लक्ष्मण अनेक प्रकार के वृक्षों की डालियाँ तोड़कर ले आए तथा उन्होंने एक पर्णशाला तैयार की। वह कुटी भीतर-बाहर दोनों ओर से लकड़ी की दीवार से सुस्थिर बनाई गई थी और ऊपर से भी उसे छा दिया गया था, ताकि वर्षा का जल भीतर न आ सके।

 

"ऐणेयम् मांसम् आहृत्य शालाम् यक्ष्यामहे वयम्।

कर्त्व्यम् वास्तुशमनम् सौमित्रे चिरजीवभिः।। (2-56-22)

 

मृगम् हत्वाऽऽनय क्षिप्रम् लक्ष्मणेह शुभेक्षण।

कर्तव्यः शास्त्रदृष्टो हि विधिर्दर्ममनुस्मर।। (2-56-23)

 

तब श्रीराम ने नियमपूर्वक स्नानादि करने के बाद वास्तुयज्ञ के सभी मन्त्रों का संक्षेप में पाठ एवं जप किया। इस प्रकार समस्त देवताओं का पूजन करके पवित्र भाव से उन्होंने पर्णकुटी में प्रवेश किया। फिर उन्होंने बलिवैश्वदेव कर्म, रुद्रयाग तथा वैष्णवयाग करके वास्तुदोष की शान्ति के लिए मंगलपाठ किया। इसके उपरान्त नदी में विधिपूर्वक स्नान करके गायत्री मन्त्र आदि का जप करने के बाद श्रीराम ने पञ्चसूना आदि दोषों की शान्ति के लिए बलिकर्म संपन्न किया। उस छोटी-सी कुटी के अनुरूप ही श्रीराम ने चैत्यों (गणेश आदि के स्थान) तथा आयतनों (विष्णु आदि देवों के स्थान) का निर्माण एवं स्थापना की। इसके बाद सीता, लक्ष्मण व श्रीराम तीनों ने एक साथ उसमें निवास के लिए प्रवेश किया।

 

वह मनोहर कुटी अत्यंत उपयुक्त स्थान पर बनी हुई थी। उसे वृक्षों के पत्तों से छाया गया था और तीव्र वायु से बचने का भी उसमें प्रबन्ध था। पास ही माल्यवती (मंदाकिनी) नदी बहती थी। उस मनोरम परिसर का सानिध्य पाकर श्रीराम को बड़ा हर्ष हुआ और वे वनवास के कष्टों को भूल गए।

 

उधर गंगा-तट पर जब श्रीराम जब नाव में बैठे, तो गुह और सुमन्त्र बहुत देर तक किनारे पर खड़े होकर उन्हें देखते रहे। जब नाव गंगा को पारकर दक्षिणी तट पर उतर गई, तो सुमन्त्र को लेकर निषादराज गुह अपने घर लौट गए, किन्तु गुह के गुप्तचर चुपचाप छिपते-छिपाते हुए श्रीराम, लक्ष्मण व सीता के पीछे-पीछे चित्रकूट तक गए।

 

वहाँ से श्रृंगवेरपुर लौटकर उन्होंने गुह को श्रीराम के प्रयाग में भरद्वाज मुनि के आश्रम में जाने और फिर वहाँ से चित्रकूट पर्वत पर पहुँचने तक का पूरा वृत्तान्त सुनाया।

 

सुमन्त्र जी इतने दिनों तक गुह के घर में इस आशा से ठहरे हुए थे कि शायद श्रीराम फिर उन्हें बुला लें। लेकिन जब गुह के गुप्तचरों से जानकारी दी कि श्रीराम ने अब चित्रकूट पर्वत पर ही अपने निवास के लिए कुटिया बनवा ली है, तो अब उनकी आशा समाप्त हो गई। अतः वे गुह से विदा लेकर अयोध्या लौट आए।

 

श्रृंगवेरपुर से निकलकर दूसरे दिन शाम को सुमन्त्र अयोध्या पहुँचे। उस समय सारी अयोध्यापुरी नीरव तथा उदास थी। जैसे ही उन्होंने नगर के द्वार से भीतर प्रवेश किया, उन्हें देखते ही सैकड़ों नागरिक उनकी ओर दौड़े चले आए तथा श्रीराम के बारे में पूछने लगे।

 

सुमन्त्र ने उन्हें बताया, “सज्जनों! मैं गंगाजी के किनारे तक श्रीराम के साथ गया था। वहाँ से उन्होंने मुझे लौट जाने की आज्ञा दी और वे तीनों गंगा के उस पार चले गए हैं। यह सुनकर वे सब लोग शोक से आँसू बहाने लगे।

 

राजमार्ग के बीच से जाते हुए सुमन्त्र ने कपड़े से अपना मुँह ढँक लिया और वे उस भवन की ओर बढ़े, जहाँ राजा दशरथ थे। राजमहल के निकट पहुँचकर वे शीघ्र ही रथ से उतर गए और सात ड्योढ़ियों को पार कर आठवीं ड्योढ़ी में उन्होंने प्रवेश किया। वहाँ उन्होंने देखा कि राजा दशरथ पुत्रशोक से मलिन, दीन एवं आतुर बैठे हैं।

 

सुमन्त्र जी ने उन्हें प्रणाम किया और रामचन्द्रजी का सन्देश ज्यों का त्यों सुना दिया। वह सब सुनकर महाराज का हृदय द्रवित हो उठा। अत्यंत शोक से पीड़ित होकर वे मूर्च्छित हो गए। महाराज की यह दशा देखकर अन्तःपुर में भीषण शोक व्याप्त हो गया।

 

कुछ समय बाद महाराज दशरथ का चित्त शांत हुआ, तब उन्होंने श्रीराम का वृत्तान्त जानने के लिए पुनः सुमन्त्र को बुलवाया। सुमन्त्र के आने पर महाराज ने देखा कि उस सारथी का सारा शरीर धूल से लथपथ हो गया है। वह दीन-भाव से सामने खड़ा है और उसके मुख पर आँसूओं की धारा बह रही है।

 

राजा ने अत्यंत आर्त होकर सुमन्त्र से पूछा, “सूत! मेरा लाड़ला राम वन में कहाँ निवास करेगा? क्या खाएगा? वह अनाथ की भाँति भूमि पर कैसे सोता होगा? जहाँ अजगर, बाघ, सिंह आदि हिंसक जीव रहते हैं, भयंकर काले सर्प जहाँ निवास करते हैं, उस भीषण वन में मेरे दोनों राजकुमार और सुकोमल सीता कैसे रहेंगे? वे लोग रथ से उतरकर पैदल कैसे गए होंगे? तुम मुझे श्रीराम के बैठने, सोने, खाने-पीने आदि की सभी बातें बताओ। वन में पहुँचकर श्रीराम ने तुमसे क्या कहा? लक्ष्मण ने क्या कहा? सीता ने क्या सन्देश दिया? तुम मुझे सब बताओ।

 

यह सुनकर सुमन्त्र जी शोकपूर्ण वाणी में बोले, “महाराज! श्रीराम ने दोनों हाथ जोड़कर और मस्तक झुकाकर आपको व अंतःपुर की सभी माताओं को अपना प्रणाम कहा है। इसके बाद उन्होंने माता कौसल्या के लिए सन्देश दिया है कि ‘मैं यहाँ सकुशल हूँ और धर्म का पालन सावधानी से कर रहा हूँ। माँ! तुम भी सदा धर्म में तत्पर रहना। मेरी अन्य सभी माताओं के प्रति समान बर्ताव करना। जिस कैकेयी के प्रति राजा के मन में अनुराग है, उसका भी सम्मान करना। भरत के प्रति भी राजोचित बर्ताव करना क्योंकि राजा कम आयु का हो, किन्तु फिर भी वह आदरणीय होता है। इस राजधर्म को याद रखना।’”

 

फिर उन्होंने भरत के लिए यह सन्देश दिया है कि ‘सभी माताओं के प्रति न्यायोचित बर्ताव करना और युवराजपद पर अभिषिक्त हो जाने के बाद भी पिताजी की रक्षा एवं सेवा करते रहना। राजा बूढ़े हो गए हैं, ऐसा सोचकर उनका विरोध मत करना और न उन्हें राजसिंहासन से हटाना। फिर उन्होंने नेत्रों से बहुत आँसू बहाते हुए भरत को यह भी सन्देश दिया है कि ‘भरत! तुम मेरी माता को भी अपनी ही माता के समान समझना।’”

 

महाराज! इतना कहकर महाबाहु श्रीराम अत्यंत दुःखी हो गए और उनके नेत्रों से आँसुओं की वर्षा होने लगी। उस समय अत्यंत कुपित होकर लक्ष्मण मुझसे बोले, ‘सुमन्त्र जी! किस अपराध के कारण महाराज ने राजकुमार श्रीराम को इस प्रकार देशनिकाला दिया? उन्होंने कैकेयी का आदेश सुनकर तुरंत ही उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कर ली। वह कार्य उचित हो या अनुचित, किन्तु उसके कारण अब हम लोगों को कष्ट भोगना पड़ रहा है।’”

 

चाहे राजा ने अपने स्वेच्छाचारी आचरण के कारण श्रीराम को वनवास दिया हो या ईश्वरीय प्रेरणा से दिया हो, किन्तु मुझे श्रीराम के परित्याग का कोई पर्याप्त कारण नहीं दिखाई देता है। महाराज ने बुद्धि की कमी के कारण या अपनी तुच्छता के कारण उचित-अनुचित का विचार किये बिना ही श्रीराम को वनवास दे दिया है, अतः इससे अवश्य ही उन्हें निन्दा और दुःख ही प्राप्त होगा। मुझे अब उनमें पिता का भाव नहीं दिखाई दे रहा है। मेरे लिए तो अब श्रीराम ही मेरे भाई, स्वामी और पिता हैं।

 

सुमन्त्र ने दशरथ जी से आगे कहा, “महाराज! जनकनन्दिनी सीता तो इस प्रकार मौन खड़ी थीं, मानो उनकी सुध-बुध ही खो गई है। उन्होंने ऐसा संकट जीवन में कभी नहीं देखा था। पति के दुःख से दुःखी होकर वे केवल रोती ही रहीं। उन्होंने मुझसे कुछ भी नहीं कहा। जब वे लोग मुझसे विदा लेने लगे, तो श्रीराम मेरी ओर देखते हुए हाथ जोड़कर खड़े थे और उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी। सीता भी रोती हुई कभी मेरे रथ की ओर देखती थी और कभी मेरी ओर।

 

यह सब सुनकर राजा दशरथ पुनः शोक से आँसू बहाने लगे। उन्होंने कहा, “सूत! उस पापिणी कैकेयी की बातों में आकर मैंने वृद्धजनों, सुहृदों, मंत्रियों, वेदवेत्ताओं आदि से सलाह लिए बिना केवल स्त्री के मोहवश सहसा यह अनर्थ कर डाला है। निश्चय ही इस कुल का विनाश करने के लिए ही यह विपत्ति अकस्मात आ पहुँची है।

 

सुमन्त्र! यदि मैंने कभी तुम्हारा थोड़ा भी उपकार किया हो, तो तुम मुझे शीघ्र ही राम के पास पहुँचा दो। यदि इस राज्य में अभी भी मेरी आज्ञा चलती हो, तो तुरंत ही वन जाकर तुम श्रीराम को अयोध्या लौटा लाओ। यदि उनका दर्शन नहीं हुआ, तो अवश्य ही मेरे प्राण निकल जाएँगे। ऐसा कहते-कहते वे शोक में डूब गए और राम, लक्ष्मण व सीता को पुकारते हुए पुनः बेहोश हो गए।

 

उनकी यह अवस्था देखकर रानी कौसल्या अत्यंत भयभीत हो गईं। वे भी सुमन्त्र से कहने लगीं, ‘जहाँ सीता, राम और लक्ष्मण हैं, मुझे भी वहीं पहुँचा दो। मुझे दण्डकारण्य में ले चलो। मैं उनके बिना जीवित नहीं रह सकती।

 

तब उन्हें समझाने के लिए सुमन्त्र जी ने ये युक्तिसंगत वचन कहे, “महारानी! यह शोक और मोह छोड़िए। श्रीराम जी इस समय सारा शोक भूलकर वन में शान्तिपूर्वक निवास कर रहे हैं। लक्ष्मण भी उनकी सेवा करते हुए अपना परलोक बना रहे हैं तथा सीता भी उनके सानिध्य में अत्यंत प्रसन्न हैं। वन में रहने का उन तीनों के मन में कोई दुःख नहीं है। श्रीराम के होते हुए उन्हें सिंह, बाघ या किसी भी जीव का कोई भय नहीं है। अतः आप श्रीराम, सीता या लक्ष्मण के लिए शोक व चिन्ता न करें।

 

अगला दिन भी इसी प्रकार दुःख में ही बीता। आधी रात के लगभग पुनः महाराज को अपना वही पुराना कृत्य याद आने लगा। तब उन्होंने कौसल्या से कहा, “कल्याणी! मनुष्य को अपने शुभ या अशुभ कर्म के अनुसार ही फल भोगना पड़ता है। एक बार मैंने भी एक पापकर्म किया था, आज मैं उसी का फल भोग रहा हूँ।

 

बहुत समय पहले अपने पिता के जीवनकाल में मेरी ख्याति शब्दभेदी बाण चलाने की थी। लोगों से मिलने वाली प्रशंसा के कारण मुझे इसका बड़ा अहंकार था। एक बार मैं शिकार के लिए वन में गया। तब आधी रात को जलाशय में पानी का स्वर सुनकर मैंने पशु समझकर एक शब्दभेदी बाण चला दिया, किन्तु वह एक निरपराध वनवासी पुरुष को जाकर लगा और कुछ समय बाद ही उसने प्राण त्याग दिए।"

 

"जब मैं उसके माता-पिता से क्षमा माँगने पहुँचा, तब पुत्र-शोक में क्रोधित होकर उन्होंने मुझे शाप दिया था कि ‘अपने पुत्र के वियोग से जैसा कष्ट हमें हो रहा है, ऐसा ही एक दिन तुम्हें भी होगा। आज हम पुत्र के वियोग में अपने प्राण त्याग रहे हैं, उसी प्रकार तुम भी पुत्र-शोक से ही अपने प्राण गँवाओगे।’”

 

रानी! आज पुत्र-वियोग के कारण सहसा ही इतने वर्षों बाद मुझे उस घटना का स्मरण हो आया है। अब मुझे कोई संदेह नहीं है कि मेरे उसी पाप-कर्म का फल अब मुझे भुगतना पड़ रहा है।

 

ऐसा कहते-कहते अचानक दशरथ जी कहने लगे, “कौसल्ये! अब मेरी आँखें तुम्हें नहीं देख पा रही हैं। मेरी स्मरण-शक्ति भी लुप्त होती जा रही है। अरे! वह देखो! यमराज के दूत मुझे यहाँ से ले जाने को उतावले हो रहे हैं। मेरे हृदय विदीर्ण हो रहा है। मेरी सारी इन्द्रियाँ नष्ट हो रही हैं। हा क्रूर कैकेयी! ले अब तेरी कुटिल इच्छा पूर्ण हुई। इससे बड़ा दुःख क्या होगा कि मैं अपने अंतिम क्षण में भी अपने उस धर्मज्ञ पुत्र का दर्शन नहीं कर पा रहा हूँ। हा राम! मैंने कैसा दुर्भाग्यशाली हूँ कि तेरे जैसे सदाचारी पुत्र को मैंने वन में भेज दिया।

 

ऐसे दीनतापूर्ण वचन कहते-कहते अपने प्रिय पुत्र के वनवास से शोकाकुल महाराज दशरथ ने पुत्र के वियोग में आधी रात बीतते-बीतते प्राण त्याग दिए। वह श्रीराम के वनवास की छठीं रात थी।

 

                        (आगे अगले भाग में..स्रोत: वाल्मीकि रामायण)

 

                                जय श्रीराम️पं रविकांत

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