वाल्मीकि रामायण (भाग 18): आगामी अध्याय और महत्वपूर्ण कथाएँ
श्रीराम के पीछे-पीछे
जो अयोध्यावासी तमसा नदी के तट तक आ गए थे, वे अगली सुबह जागने पर श्रीराम को वहाँ
न पाकर अत्यंत व्याकुल हो गए। उन्होंने आस-पास बहुत खोजा, किन्तु उन्हें श्रीराम, लक्ष्मण,
सीता या सुमन्त्र का कोई चिह्न तक दिखाई नहीं दिया। तब वे लोग निराश होकर अपनी निद्रा
को धिक्कारने लगे, जिसके कारण श्रीराम के जाने का उन्हें पता नहीं चला था।
वे लोग आपस में सोचने
लगे कि अब आगे क्या किया जाए। क्या जंगल की सूखी लकड़ियाँ एकत्र करके वहीं एक सामूहिक
चिता जला लें व उसी में जलकर भस्म हो जाएँ या श्रीराम की खोज में और आगे बढ़ें? अब श्रीराम
के बिना घर लौटकर अयोध्या की स्त्रियों, बालकों, वृद्धों को क्या मुँह दिखाएँगे?
ऐसी बातें सोचते हुए
अंततः उन्होंने आगे बढ़ने का निश्चय किया। मार्ग पर रथ के चिह्नों को देखते हुए वे लोग
कुछ दूरी तक आगे बढ़े, किन्तु उसके आगे अचानक ही उन्हें रथ की लीक दिखना बन्द हो गई
और वे मार्ग का ठीक निश्चय नहीं कर पाए। अंततः हार मानकर वे सब क्लांत मन से अयोध्या
को लौट गए।
श्रीराम से सूनी हो चुकी
उस उदास अयोध्या नगरी को देखकर उनका हृदय व्याकुल हो उठा और उनकी आँखों से आँसू बहने
लगे। जब वे लोग अपने-अपने घरों में पहुँचे, तो श्रीराम के बिना ही उनके लौट आने की
बात सुनकर उन सबके परिवारजन भी शोक से कातर हो गए और दुःख से अश्रु बहाने लगे।
श्रीराम के जाने से अयोध्या
में सबका मन शोकाकुल हो गया था। किसी के मन में कोई उत्साह नहीं बचा था। उस दिन अयोध्या
के घरों में चूल्हे नहीं जले, बाजारों में दुकानें नहीं खुलीं, कहीं भी अग्निहोत्र,
स्वाध्याय, कथा-वार्ता आदि कुछ भी नहीं हुआ। सब लोग इस प्रकार दुःखी हो गए थे, मानो
उनके ही सगे बेटे या भाई को वन में भेज दिया गया हो।
उधर श्रीराम, सीता और
लक्ष्मण सूर्योदय से पूर्व ही विभिन्न जनपदों को पार करते हुए बहुत दूर निकल गए थे।
मार्ग में पड़ने वाले छोटे-बड़े गाँवों से होते हुए उनका रथ तेज गति से आगे बढ़ता रहा।
उन्हें देखकर उन ग्रामों के निवासी भी आपस में कहने लगे कि ‘हाय! कामासक्त राजा दशरथ
को धिक्कार है। उस निष्ठुर कैकेयी को धिक्कार है जिसने ऐसे गुणवान पुत्र को घर से निकलवा
दिया। जो सीता सदा सुख में ही पली-बढ़ी थी, अब वह वनवास के दुःखों का सामना कैसे करेंगी?’
इस प्रकार की बातें सुनते
हुए वीर श्रीराम ने वेदश्रुति (वर्तमान नाम ‘बिसुही’) नामक नदी को पार किया। बहुत समय तक आगे बढ़ते
रहने पर वे लोग गोमती नदी के तट पर पहुँचे, जिसके कछार में अनेक गौएँ विचरण करती थीं।
गोमती को पार करने के बाद उन्होंने स्यन्दिका (वर्तमान नाम ‘सई’) नदी को पार किया, जिसके
किनारों पर मोर एवं हंस कलरव कर रहे थे। यही नदी कोसल राज्य की सीमा-रेखा भी थी।
कोसल की सीमा को पार
करने पर श्रीराम ने रुककर अयोध्या की मुँह किया और हाथ जोड़कर से कहा, “हे महान अयोध्या
नगरी! अब तुम मुझे वन जाने की आज्ञा दो। वनवास की अवधि पूरी करने पर मैं महाराज के
ऋण से मुक्त हो जाऊँगा और तब पुनः लौटकर तुम्हारा व अपने माता-पिता का दर्शन करूँगा।”
अनेक ग्रामवासी उनके
दर्शनों के लिए वहाँ उपस्थित थे। अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाकर नेत्रों से आँसू बहाते
हुए दुःखी श्रीराम ने उन लोगों से कहा, “आप सबने मेरे लिए बहुत देर तक कष्ट सहा। आपका
इस प्रकार दुःख में पड़े रहना अच्छा नहीं है, अतः अब आप लोग अपने-अपने घर लौट जाइये।”
ऐसा कहकर श्रीराम अपने
मार्ग पर आगे बढ़ गए। उन्होंने रथ में सुमन्त्र से कहा, “सूत! मैं पुनः कब लौटकर माता-पिता
से मिलूँगा और सरयू के निकटवर्ती वन में कब शिकार के लिए भ्रमण करूँगा?”
इस प्रकार सुमन्त्र से
विभिन्न विषयों पर बातें करते-करते वे लोग त्रिपथगामिनी दिव्य नदी गंगा के पास आ पहुँचे।
वह शीतल जल से भरी हुई अत्यंत रमणीय नदी थी। उस देवनदी के किनारों पर थोड़ी-थोड़ी दूर
पर अनेक सुन्दर आश्रम बने हुए थे, जिनमें बहुत-से महर्षि प्रसन्नतापूर्वक रहते थे।
गंगा नदी का जल कहीं-कहीं बहुत शांत व गहरा है, तो कहीं वह अत्यंत तीव्र गति से बहता
है। कहीं उसके जल से फेन उत्पन्न होता है और चट्टानों पर जल टकराने से कहीं मृदंग के
समान गंभीर और कहीं वज्रपात के समान भीषण स्वर सुनाई देता है, मानो क्रोधित होकर गंगा
उग्र अट्टहास कर रही हो।
गंगा नदी से किनारों
पर देवताओं के अनेक उद्यान हैं। कहीं गंगा का जल नील कमलों से छिप जाता है, तो कहीं
उसमें बालू के विशाल ढेर दिखाई पड़ते हैं। इस नदी के किनारों पर कहीं-कहीं हंसों और
सारसों का कलरव गूँजता है, तो कहीं चकवे एवं भँवरे उसकी शोभा बढ़ाते हैं। रंग-बिरंगे
फूलों, फलों, लताओं, पक्षियों से सजी वह नदी अत्यंत सुन्दर दिखाई पड़ती है। उसका स्वच्छ
जल मणियों के समान निर्मल है। उसके तटवर्ती वनों में अनेक जंगली हाथियों का कोलाहल
गूँजता रहता है। गंगा नहीं के जल में सूँस, घड़ियाल व सर्प निवास करते हैं और उसके किनारों
पर क्रौञ्च पक्षी कलरव करते हैं। यही गंगा आकाश में देवपद्मिनी कहलाती है।
इस गंगा नदी को देखते
हुए इसके किनारे-किनारे चलकर श्रीराम का रथ श्रृंगवेरपुर के निकट पहुँच गया। तब महारथी
श्रीराम ने अपने सारथी सुमन्त्र से कहा, “सूत! आज हम लोग यहीं रहेंगे। गंगाजी के समीप
ही अनेक पुष्पों से सुशोभित यह महान इंगुदी का जो वृक्ष है, आज की रात हम इसी के नीचे
निवास करेंगे। यहाँ से मुझे कल्याणस्वरूपा गंगा जी का दर्शन भी होता रहेगा।”
तब श्रीराम की आज्ञा
के अनुसार रथ को सुमन्त्र उस वृक्ष के निकट ले गए। वहाँ पहुँचकर श्रीराम, सीता और लक्ष्मण
रथ से उतरे। सुमन्त्र ने भी घोड़ों को रथ से खोल दिया और वे वृक्ष के नीचे बैठे श्रीराम
के पास जाकर हाथ जोड़कर खड़े हो गए।
श्रृंगवेरपुर में गुह
काम का राजा राज्य करता था। उसका जन्म निषादकुल में हुआ था। वह शारीरिक शक्ति और सैन्य
शक्ति में अत्यंत बलवान था एवं वह श्रीराम का प्राणों के समान प्रिय मित्र था।
निषादराज गुह ने जैसे
ही सुना कि श्रीराम मेरे राज्य में पधारे हैं, तो वह तुरंत ही अपने वरिष्ठ मंत्रियों
व बंधु-बांधवों के साथ वहाँ आ पहुँचा। श्रीराम को वल्कल वस्त्रों में देखकर उसे बहुत
दुःख हुआ। उसने उन्हें गले से लगाकर कहा, “श्रीराम! आपके लिए जैसा अयोध्या का राज्य
है, वैसे ही यह राज्य भी है। आपका हार्दिक स्वागत है। मेरे अधिकार की यह सारी भूमि
आपकी ही है। हम आपके सेवक हैं और आप हमारे स्वामी हैं। आज से आप ही हमारे इस राज्य
पर शासन करें। आपकी सेवा में यह अन्न, खीर, चटनी, पेय आदि भोजन उपस्थित है। आप इसे
स्वीकार करें। आपके विश्राम के लिए ये उत्तम शैय्याएँ हैं तथा आपके अश्वों के लिए भी
हम लोग चने व घास आदि लाए हैं। आप यह सब सामग्री ग्रहण करें।”
राजा गुह के ऐसे वचन
सुनकर श्रीराम ने उसका आलिंगन करते हुए कहा, “मित्र! तुम इतनी दूर तक पैदल चलकर आए
और इस प्रकार स्नेहपूर्वक हमसे बात की, उसी में हमारा सब स्वागत-सत्कार हो गया है।
तुमसे मिलकर व तुम्हें इस प्रकार अपने बंधु-बान्धवों के साथ देखकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता
हुआ। इन दिनों मैं वल्कल एवं मृगचर्म धारण करके तापस वेश में विचरता हूँ और केवल फल-मूल
का ही आहार करता हूँ। अभी इस नियम के अधीन होने के कारण मैं दूसरों की दी हुई सामग्री
ग्रहण नहीं कर सकता। अतः तुमने प्रेमपूर्वक जो यह सब सामग्री प्रस्तुत की है, मैं इसे
स्वीकार करके भी तुम्हें यह आज्ञा दे रहा हूँ कि तुम इसे वापस ले जाओ। इसमें घोड़ों
के खाने-पीने की जो सामग्री है, मुझे इस समय केवल उतने की ही आवश्यकता है। ये घोड़े
मेरे पिता अत्यंत प्रिय हैं। इनके खाने-पीने का अच्छा प्रबंध हो जाने मात्र से ही मेरा
भी पूर्ण सत्कार हो जाएगा।”
तब गुह ने अपने सेवकों
को उन अश्वों के खाने-पीने की सभी आवश्यक वस्तुएँ तुरंत लाने को कहा।
तत्पश्चात श्रीराम ने
संध्योपासना करने के उपरान्त केवल लक्ष्मण का लाया हुआ जल ही भोजन के रूप में ग्रहण
किया। फिर वे अपनी पत्नी सीता के साथ घास की शैय्या बिछाकर लेट गए। भाई लक्ष्मण, सारथी
सुमन्त्र व निषादराज गुह उनसे कुछ दूर हटकर एक वृक्ष का सहारा लेकर बैठ गए और रात-भर
जागकर बातचीत करते रहे।
उस रात जल्दी नींद न
आने के कारण श्रीराम भी बहुत देर तक जागते रहे
अपने प्रिय भाई की रक्षा
के लिए लक्ष्मण को इस प्रकार सारी रात जागते हुए देखकर निषादराज गुह को बड़ा कष्ट हुआ।
उन्होंने कहा, “राजकुमार! तुम्हारे लिए यह आरामदायक शैय्या तैयार है, तुम इस पर विश्राम
करो। मैं और मेरे सेवक रात-भर यहाँ पहरा देते रहेंगे, अतः तुम निश्चिन्त रहो। मैं सत्य
की शपथ खाकर कहता हूँ कि मुझे श्रीराम से अधिक प्रिय कोई और नहीं है। उनकी कृपा से
ही मैं इतना सुखी हूँ। मैं हर प्रकार से उनकी रक्षा करूँगा।”
यह सुनकर लक्ष्मण जी
बोले, “बन्धु! तुम यहाँ हम सबकी रक्षा कर रहे हो, इसी कारण हम निर्भय हैं। फिर भी जब
स्वयं श्रीराम व माँ सीता भूमि पर शयन कर रहे हैं, तब मेरे लिए किसी उत्तम शैय्या पर
विश्राम करना या स्वादिष्ट अन्न खाना कदापि संभव नहीं है।”
“मुझे
तो बार-बार अयोध्या का विचार आ रहा है। अन्तःपुर की सब स्त्रियाँ बहुत आर्तनाद करके
अब अत्यधिक कष्ट के कारण थककर चुप हो गई होंगी। राजभवन का हाहाकार और चीत्कार अब शांत
हो गया होगा। संभव है कि शत्रुघ्न की प्रतीक्षा करते-करते मेरे माता सुमित्रा तो जीवित
भी रह जाए, किन्तु श्रीराम से बिछड़ने के बाद अब महाराज दशरथ व रानी कौसल्या कब तक जीवित
रह पाएँगे, इसकी मुझे बड़ी चिंता है। क्या हम लोगों के अयोध्या लौटने तक हमारे माता-पिता
जीवित रहेंगे? क्या हम लोग वनवास की अवधि पूर्ण करके कभी अयोध्या लौट सकेंगे? ऐसे अनेक
विचार मेरे मन में उमड़ते रहते हैं।”
इस प्रकार की बातें करते-करते
राजकुमार लक्ष्मण दुःख से विलाप करने लगे। उनकी वह दशा देखकर गुह को भी अत्यधिक व्यथा
हुई। उन दोनों की रात ऐसे ही रोते हुए कटी।
प्रातःकाल जब सूर्योदय
का समय होने लगा, तब श्रीराम ने लक्ष्मण को बुलाकर कहा, “तात! अब रात्रि व्यतीत हो
गई है और सूर्योदय का समय आ पहुँचा है। यह अत्यंत काले रंग का कोकिल पक्षी (कोयल) भी
कुहू-कुहू बोल रहा है। वन में मोरों की वाणी भी सुनाई दे रही है। अब शीघ्र ही हमें
गंगाजी के पार उतरना चाहिए।”
श्रीराम की यह इच्छा
सुनकर लक्ष्मण जी ने गुह और सुमन्त्र को बुलाया तथा उन तीनों को पार उतारने की व्यवस्था
करने को कहा। यह आज्ञा पाकर निषादराज ने अपने सचिवों से कहा, “तुम शीघ्र ही घाट पर
ऐसी सुन्दर नाव ले आओ, जो मजबूत व सुगमता से खेने योग्य हो। उसमें डाँड़ लगा होना चाहिए
और कर्णधार भी बैठा हुआ हो।”
आज्ञा मिलते ही सचिवों
ने उसका पालन किया व एक उत्तम नौका उपलब्ध करवा दी। श्रीराम के आदेश पर सब सामान नाव
पर चढ़ा दिया गया।
श्रीराम व लक्ष्मण दोनों
भाई कवच धारण करके, तरकस व तलवार बाँधकर एवं धनुष हाथ में लेकर सीता के साथ उसी मार्ग
से गंगा तट तक पहुँचे, जिससे सभी लोग घाट पर आते-जाते थे।
वहाँ पहुँचने पर सारथी
सुमन्त्र ने पूछा, “प्रभु! अब मैं आपकी क्या सेवा करूँ?”
तब श्रीराम बोले, “सुमन्त्र
जी! अब आप शीघ्र ही पुनः अयोध्या जाइये और वहाँ सावधान होकर रहिये। महाराज की आज्ञा
से हमने इतनी दूर तक रथ में यात्रा की है, किन्तु अब हम लोग रथ छोड़कर पैदल ही वन में
जाएँगे। अतः अब आप लौट जाइये।”
यह सुनकर सुमन्त्र अत्यंत
व्याकुल हो गए। वे श्रीराम को इस प्रकार छोड़कर लौटने को तैयार नहीं थे।
श्रीराम ने उन्हें अनेक
प्रकार से समझाया और फिर अपने माता-पिता के लिए उन्हें यह संदेश दिया - “सुमन्त्र जी!
आप मेरी ओर से महाराज को प्रणाम करके कहियेगा कि ‘हम लोगों को अयोध्या से निकलना पड़ा
या वन में रहना पड़ेगा, इसका मुझे या लक्ष्मण को कोई शोक नहीं है। अतः आप लोग भी शोक
न करें। हम चौदह वर्ष समाप्त होने पर पुनः लौट आएँगे और आप सबका दर्शन करेंगे।’
सुमन्त्र जी, आप उनसे
यह भी कहना कि ‘भरत को शीघ्र बुलवा लें और युवराजपद पर अभिषिक्त कर दें।’
मेरी माता को आप सन्देश
दीजिएगा कि ‘माँ! तुम्हारा पुत्र स्वस्थ एवं प्रसन्न है।’
आप भरत से भी कहियेगा
कि ‘तुम्हारी दृष्टि में कैकेयी का जो स्थान है, वही सुमित्रा का व मेरी माता कौसल्या
का भी होना चाहिए। उनमें तुम कोई भेदभाव न करना।’”
फिर भी सुमन्त्र नहीं
माने। उन्होंने हाथ जोड़कर श्रीराम से कहा, “प्रभु! जब मैं उस अयोध्यापुरी में आपके
बिना लौटूँगा, तो न जाने उन सब लोगों की क्या दशा होगी। जिस रथ में उन्होंने श्रीराम
को विराजमान देखा था, उसे अब सूना देखकर उनका हृदय छलनी हो जाएगा। मैं किस मुँह से
महारानी कौसल्या को बताऊँगा कि ‘मैं आपके पुत्र को वन में छोड़ आया हूँ’? मैं इस प्रकार अयोध्या
नहीं जा सकता। अतः आप मुझे अपने साथ वन में आने दीजिए अथवा मैं यहीं अग्नि में प्रवेश
करके अपने प्राण दे दूँगा।”
तब श्रीराम ने उनसे कहा,
“सुमन्त्र जी! जब आप अयोध्या में लौटेंगे, केवल तभी आपको देखकर माता कैकेयी को यह विश्वास
हो सकेगा कि मैं सचमुच वन में चला गया हूँ। अन्यथा वह मेरे पिता पर संदेह करती ही रहेगी।
मैं नहीं चाहता कि मेरे वन में चले जाने पर भी कोई मेरे पिता को झूठा कहकर उन पर संदेह
करे। अतः आपको अयोध्या वापस जाना ही होगा।”
सुमन्त्र को इस प्रकार
समझा-बुझाकर श्रीराम ने अब गुह से कहा, “निषादराज! जिस वन में जनपद के लोगों का आना-जाना
रहता हो, उसमें रहना अभी मेरे लिए उचित नहीं है। मुझे अवश्य ही निर्जन वन के आश्रम
में जटा आदि धारण करके ही रहना होगा। अतः मेरे केशों को जटा का रूप देने के लिए तुम
बड़ का दूध ला दो।”
यह सुनकर गुह ने तुरंत ही आज्ञा का पालन किया। तब श्रीराम ने अपनी व लक्ष्मण की जटाएँ
बनाईं तथा इस प्रकार वल्कल-वस्त्र एवं जटाएँ धारण करके वे दोनों भाई ऋषियों के समान
दिखाई देने लगे।
अब श्रीराम के आदेश पर
लक्ष्मण ने पहले सीता जी को नाव पर बिठाया, फिर स्वयं भी उस सवार हुए और अंत में श्रीराम
भी नाव पर आरूढ़ हुए। तब उन्होंने सुमन्त्र एवं निषादराज गुह से विदा ली तथा मल्लाहों
को नाव चलाने का आदेश दिया।
जब नाव गंगाजी की बीच
धारा में पहुँची, तब साध्वी सीता ने हाथ जोड़कर गंगाजी से यह प्रार्थना की - “देवी गंगे!
महाराज दशरथ के ये पुत्र अपने पिता की आज्ञा से वन में जा रहे हैं। आप ऐसी कृपा कीजिए
कि वन में सुरक्षित रहकर ये अपने पिता का वचन पूरा कर सकें एवं चौदह वर्षों तक निवास
करके अपने भाई के तथा मेरे साथ पुनः सुखपूर्वक अयोध्या को लौटें।”
“हे
देवी! जब श्रीराम वन से सकुशल वापस लौटकर अपना राज्य प्राप्त कर लेंगे, तब मैं पुनः
यहाँ आकर आपको प्रणाम करुँगी। मैं ब्राह्मणों को एक लाख गौएँ, उत्तम वस्त्र एवं बहुत-सा
अन्न भी प्रदान करुँगी।
आगे सीता ने कहा,
"आपके किनारों पर जो-जो देवता, तीर्थ एवं मन्दिर हैं, मैं उन सबका पूजन करुँगी।"
शीघ्र ही वे लोग नदी
के दक्षिणी तट पर जा पहुँचे। अब उन्होंने नाव छोड़ दी व आगे की ओर प्रस्थान किया।
तब श्रीराम अपने भाई
लक्ष्मण से बोले, "सुमित्राकुमार! अब तुम वन में सीता की रक्षा के लिए सावधान
हो जाओ। तुम आगे-आगे चलो, सीता तुम्हारे पीछे चले और मैं तुम दोनों की रक्षा करता हुआ
सबसे पीछे चलूंगा।"
"अपनी वास्तविक
कठिनाइयां आज ही से आरंभ हो रही हैं। आज विदेहकुमारी को वनवास के वास्तविक कष्ट का
अनुभव होगा। इस वन में न मनुष्यों के आने-जाने का कोई चिह्न दिखाई देगा, न धान आदि
के खेत होंगे, न टहलने के लिए बगीचे। यहां ऊंची-नीची भूमि होगी और गड्ढों में गिरने
का भय रहेगा।"
श्रीराम जी की यह बात
मानकर वे लोग उसी प्रकार आगे बढ़े।
इस प्रकार गंगा नदी को
पार करके वे लोग समृद्ध वत्सदेश (प्रयाग) में आ पहुंचे।
(आगे अगले भाग में…स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस)
जय श्रीराम✍️पं रविकांत