वाल्मीकि रामायण (भाग 17): महाकाव्य का आगामी अध्याय और महत्वपूर्ण कथाएँ
दशरथ जी की आज्ञानुसार
तुरंत ही जाकर सुमन्त्र जी उत्तम घोड़ों से जुता हुआ एक स्वर्णाभूषित रथ ले आए।
तब श्रीराम ने हाथ जोड़कर
अपनी माता कौसल्या से कहा, “माँ! तुम पिताजी को देखकर यह न सोचना कि उनके कारण तुम्हारे
इस पुत्र को वनवास हुआ है। मेरे वनवास की अवधि के ये चौदह वर्ष तो शीघ्र ही बीत जाएँगे
तथा तुम मुझे सीता और लक्ष्मण के साथ पुनः सुखपूर्वक देखोगी। अतः तुम मेरे वनवास से
दुःखी न होना।”
इसके पश्चात् श्रीराम
ने अपनी अन्य साढ़े तीन सौ माताओं से भी हाथ जोड़कर कहा, “माताओं! सदा आप सबके साथ रहने
के कारण मैंने जो कुछ कठोर वचन कह दिए हों अथवा मुझसे कोई अपराध हो गए हों, तो आप मुझे
क्षमा करें। मैं अब आप सबसे विदा माँगता हूँ।” यह सुनकर उन सबका चित्त व्याकुल हो गया एवं उनके
दुःखद आर्तनाद से सारा राजमहल गूँज उठा।
अब श्रीराम, सीता और
लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर दशरथ जी के चरणों में प्रणाम करके उनकी प्रदक्षिणा की। इसके बाद
माता कौसल्या व सुमित्रा के चरणों में प्रणाम किया।
तब माँ सुमित्रा ने अपने
पुत्र लक्ष्मण से कहा, “वत्स! तुम श्रीराम के परम अनुरागी हो, इसलिए मैं तुम्हें वनवास
के लिए विदा करती हूँ। वन में भी तुम अपने भाई की सेवा में कभी कमी न रखना। ये संकट
में हों या समृद्धि में, तुम्हारा कल्याण इन्हीं के साथ है। वनवास में तुम श्रीराम
को ही अपने पिता महाराज दशरथ समझना, जनकनन्दिनी सीता को ही अपनी माता सुमित्रा मानना
तथा वन को ही अब अयोध्या नगरी समझना।”
अब सुमन्त्र ने हाथ जोड़कर
विनयपूर्वक श्रीराम से कहा, “महायशस्वी राजकुमार राम! आपका कल्याण हो। आप इस रथ पर
बैठिये। आप जहाँ कहेंगे, मैं वहीं आपको शीघ्रतापूर्वक पहुँचा दूँगा। आपको जिन चौदह
वर्षों तक वन में रहना है, उनकी गणना आज से ही प्रारंभ हो जानी चाहिए क्योंकि देवी
कैकेयी ने आज ही आपको वन में जाने के लिए प्रेरित किया है।”
तब सीता अपने अंगों में
उत्तम अलंकार धारण करके प्रसन्न चित्त होकर उस रथ पर आरूढ़ हुईं। महाराज दशरथ की आज्ञा
से उन्हें वनवास के वर्षों की संख्या के अनुसार पर्याप्त आभूषण और वस्त्र दिए गए थे।
उसी प्रकार दोनों भाइयों
को भी अनेक अस्त्र-शस्त्र और कवच प्रदान किए गए थे। उन्हें रथ के पिछले भाग में रखकर
उन्होंने चमड़े से मढ़ी हुई पिटारी और खन्ती भी उस पर रख दी। इसके बाद दोनों भाई उस रथ
पर आरूढ़ हो गए।
उन तीनों को रथ पर आरूढ़
देखकर सारथी सुमन्त्र ने रथ को आगे बढ़ाया।
श्रीरामचन्द्रजी को वनवास
के लिए जाता देख समस्त अयोध्या में कोलाहल मच गया। अनेक नगरवासी, सैनिक व अन्य नगरों
से आए दर्शक शोक से मूर्च्छित हो गए। इधर-उधर भागते घोड़ों के हिनहिनाने और उनके आभूषणों
के खनखनाने की ध्वनि सब ओर गूँजने लगी। मतवाले हाथी कुपित हो उठे। अयोध्या के बच्चे-बूढ़े
सभी लोग अत्यंत दुःखी होकर श्रीराम के रथ के पीछे-पीछे ही दौड़ने लगे।
उनमें से कुछ लोग तो
रथ के पीछे और अगल-बगल में लटक गए। वे सब श्रीराम को देखने के लिए उत्कंठित थे और उनकी
आँखों से आँसूओं की धारा बह रही थी। वे सब उच्च स्वर में सुमन्त्र से कहने लगे, “सूत!
घोड़ों की लगाम खींचों, रथ को धीरे-धीरे ले जाओ। हम श्रीराम का मुख देखना चाहते हैं
क्योंकि अब उनका दर्शन हम सब के लिए दुर्लभ होने वाला है।”
उसी समय महल में अपनी
रानियों से घिरे हुए महाराज दशरथ भी अत्यंत दीन भाव से बोले, “मैं अपने प्यारे पुत्र
श्रीराम को देखूँगा”
और ऐसा कहकर वे भी महल से बाहर निकल आये।
यह सब देखकर श्रीराम
ने सुमन्त्र से कहा, “आप रथ को तेजी से आगे बढ़ाइए।”
एक ओर श्रीराम रथ को
तेजी से हाँकने को कह रहे थे और दूसरी ओर जनसमुदाय रथ रोकने को कह रहा था। इस दुविधा
में पढ़कर सुमन्त्र न तो रथ को तेजी से बढ़ा सके और न ही उसे पूर्णतया रोक सके।
अयोध्या की अपनी सारी
प्रजा को इस प्रकार दुःखी देख महाराज दशरथ अत्यंत दुःख से व्याकुल होकर सहसा भूमि पर
गिर पड़े। यह देखकर भीड़ में पुनः कोलाहल मच गया। उसे सुनकर श्रीराम ने पीछे घूमकर देखा,
तो उन्हें अपने विषादग्रस्त पिता व शोक के सागर में डूबी हुई माता कौसल्या दोनों ही
मार्ग पर अपने पीछे-पीछे आते हुए दिखाई दिए।
अपने माता-पिता को इस
दुःखद अवस्था में देखना श्रीराम के लिए असह्य हो गया। उन्होंने पुनः सुमन्त्र को रथ
और तेज गति से चलाने को कहा। यह देखकर माता कौसल्या भी और तेज गति से रथ की ओर दौड़ने
लगीं। वे ‘हा राम! हा सीते! हा लक्ष्मण!’ पुकार रही थीं और आँखों से आँसू बहाती हुईं
रथ के पीछे भाग रही थीं। महाराज दशरथ भी बार-बार ‘सुमन्त्र! ठहरो!’ कहते जा रहे थे
और उधर श्रीराम रथ को और शीघ्रता से आगे बढ़ाने को कह रहे थे। इस समय सुमन्त्र जी की
दशा दो पाटों के बीच फँसे मनुष्य के जैसी हो रही थी।
तब श्रीराम ने उनसे कहा,
“यहाँ अधिक विलम्ब करना मेरे और पिताजी के लिए भी केवल दुःख का ही नहीं, अतीव दुःख
का कारण बनेगा, अतः अब रथ को तीव्रता से आगे बढ़ाइए। जब आप हमें छोड़कर लौटेंगे, तब यदि
महाराज उलाहना दें, तो आप कह दीजियेगा कि रथ चलाते समय अत्यधिक कोलाहल के कारण आपको
उनकी आवाज सुनाई नहीं दी थी।” अंततः श्रीराम की इस आज्ञा को मानकर सुमन्त्र
ने घोड़ों की गति बढ़ा दी।
उधर राजा दशरथ से भी
उनके मंत्रियों ने कहा, “राजन! जिसके शीघ्र लौट आने की इच्छा हो, उसके पीछे बहुत दूर
तक नहीं जाना चाहिए। अतः अब आप महल को लौट चलिए।”
राजा दशरथ का शरीर पसीने
से भीग गया था। वे विषाद से पीड़ित हो गए थे। मंत्रियों की यह बात सुनकर वे वहीं खड़े
रह गए और अत्यंत दीन भाव से अपने पुत्र को जाता हुआ देखने लगे।
श्रीराम के चले जाने
से पूरी अयोध्या उदास हो गई।
उस दिन अग्निहोत्र बंद
हो गया, गृहस्थों के घर भोजन नहीं बना, दुःखी प्रजाजनों ने कोई काम नहीं किया, हाथियों
ने चारा छोड़ दिया, गौओं ने बछड़ों को दूध नहीं पिलाया और अपने पुत्र को जन्म देने वाली
कोई माता भी उस दिन प्रसन्न नहीं हुई। पति अपनी स्त्रियों को, बालक अपने माता-पिता
को व भाई अपने भाइयों को भूल गए। सब कुछ छोड़कर लोग केवल श्रीराम का ही स्मरण करने लगे।
श्रीराम के चले जाने
से सूर्यदेव भी अस्ताचल को लौट गए; त्रिशंकु, मंगल, गुरु, शुक्र, शनि आदि सब ग्रह भी
दारुण होकर वक्रगति से चन्द्रमा के पास पहुँच गए। नक्षत्रों की कान्ति फीकी पड़ गई।
समस्त दिशाएँ व्याकुल हो उठीं और घने बादलों के कारण आकाश में भीषण अन्धकार छा गया।
श्रीराम के सब मित्र
तो अपनी सुध-बुध ही खो बैठे। शोक से आक्रान्त हो जाने के कारण उनमें से कोई भी रात-भर
सो नहीं पाए। सभी अयोध्यावासी शोक संतप्त होकर राजा दशरथ को कोसने लगे। सड़कों पर कोई
भी मनुष्य प्रसन्न नहीं था, सबकी आँखें आँसूओं से भीगी हुई थीं और वे सब दुःख से व्याकुल
हो गए थे।
वन की ओर जाते हुए श्रीराम
के रथ की धूल जब तक दिखाई देती रही, तब तक महाराज दशरथ एकटक उसी ओर देखते रहे। जब रथ
बहुत दूर निकल गया और उसकी धूल भी दिखना बंद हो गई, तो अत्यंत आर्त एवं विषादग्रस्त
होकर सहसा वे पृथ्वी पर गिर पड़े। रानी कौशल्या और कैकेयी उन्हें सहारा देने के लिए
आगे बढ़ीं।
कैकेयी को देखते ही दशरथ
जी व्यथित होकर बोले, “पापिणी! तू स्पर्श न कर। तूने धन में आसक्त होकर धर्म का त्याग
किया है, अतः अब मैं भी तेरा परित्याग करता हूँ। आज से न तू मेरी भार्या है और न तेरे
आश्रय में पलने वालों का मैं स्वामी हूँ। मैंने जो तेरा पाणिग्रहण किया था और तुझे
साथ लेकर अग्नि की परिक्रमा की थी, तुझसे वह सारा संबंध भी अब मैं इस लोक और परलोक
के लिए भी त्याग रहा हूँ। तेरा पुत्र भरत भी यदि इस प्रकार राज्य पाकर प्रसन्न होता
है, तो वह मेरे श्राद्ध में जो कुछ पिण्डदान आदि करे, वह भी मुझे प्राप्त न हो।”
ऐसा कहकर वे रानी कौसल्या
के साथ लौट गए।
पूरे मार्ग में वे विलाप
करते रहे और श्रीराम का स्मरण करके उनका नाम लेते रहे। नगर की सीमा में पहुँचकर उन्होंने
द्वारपालों से अस्पष्ट और दीनतायुक्त शब्दों में कहा, “मुझे शीघ्र ही राम की माता कौसल्या
के घर में पहुँचा दो क्योंकि मेरे हृदय को कहीं और शान्ति नहीं मिल सकती।” तब द्वारपालों ने उन्हें
विनम्रता के साथ रानी कौसल्या के भवन में पहुँचाया और पलंग पर लिटा दिया।
दशरथ जी का मन फिर भी
शांत नहीं हुआ। वे बार-बार चीत्कार करते रहे और श्रीराम को याद करके रोते रहे। एक बार
अचानक उन्होंने अपनी एक बाँह को ऊपर उठाकर उच्चस्वर में विलाप करते हुए कहा, “हा राम!
तुम अपने माता-पिता को त्याग कर चले गए। जो लोग चौदह वर्षों तक जीवित रहेंगे और वन
से लौटने पर तुम्हें देखें, वे ही वास्तव में सुखी होंगे।”
फिर मध्यरात्रि में महाराज
दशरथ रानी कौसल्या से बोले, “कौसल्ये! मेरी दृष्टि भी श्रीराम के साथ ही चली गई है
और अब मैं तुम्हें नहीं देख पा रहा हूँ। तुम एक बार अपने हाथों से मुझे स्पर्श तो करो।” यह सुनकर देवी कौसल्या
अत्यंत व्यथित हो गईं और उनके पास बैठकर उस भीषण कष्ट के कारण विलाप करने लगीं।
बहुत देर तक वे दोनों
श्रीराम, सीता व लक्ष्मण को याद करके दुःखी होते रहे तथा उनके बारे में बातें करते
रहे।
उन्हें इस प्रकार विलाप
करता देखकर अंततः रानी सुमित्रा ने कौसल्या को समझाया, “आर्ये! तुम्हारे पुत्र राम
तो उत्तम गुणों से परिपूर्ण हैं। उनके लिए इस प्रकार शोक करना व्यर्थ हैं। जो अपने
पिता के वचन को पूरा करने के लिए वन में चले गए हैं, उनका यह कर्म तो अत्यंत महान है।
उसके लिए इस प्रकार दीनतापूर्वक रोना व्यर्थ है।”
“उत्तम
आचरण वाला मेरा पुत्र लक्ष्मण भी वन में उनकी सेवा करेगा। सीता भी वन के कष्टों को
जानते हुए भी अपने पति के साथ स्वयं की इच्छा से गई है। अतः इस प्रकार शोक नहीं करना
चाहिए। वे शूरवीर श्रीराम जिस प्रकार महल में रहते थे, उसी प्रकार वन में भी निर्भय
होकर रहेंगे। दानवराज सुबाहु को मारने वाले श्रीराम की वीरता देखकर विश्वामित्रजी ने
उन्हें अनेक दिव्यास्त्र प्रदान किये थे, जो वहाँ उनकी रक्षा करेंगे। तुम शोक न करो।
शीघ्र ही वन से लौटकर श्रीराम और सीता इस अयोध्या के राज्य पर आरूढ़ होंगे और तुम उन्हें
देखकर आनंद के अश्रु बहाओगी।”
यह सांत्वना की बातें
सुनकर कौसल्या का शोक कुछ कम हुआ।
उधर श्रीराम जब वन की
ओर बढ़े, तो अनेक अयोध्यावासी भी उनके पीछे-पीछे चल दिए। दशरथ जी के लौट जाने पर भी
वे लोग श्रीराम के पीछे ही बढ़ते रहे। श्रीराम ने उन्हें बार-बार समझाया कि ‘मेरे भाई
भरत भी सद्गुण-संपन्न, पराक्रमी एवं धर्मात्मा हैं। वे न्यायपूर्वक आप सबका पालन करेंगे।
अतः आप अब अयोध्या को वापस लौट जाएँ’, किन्तु बार-बार आग्रह करने पर भी वे लौटने को
सहमत न हुए। इसके विपरीत वे लोग ही श्रीराम से वापस अयोध्या लौटने का आग्रह करने लगे।
सब लोगों को इस प्रकार विलाप करते देख श्रीराम भी सहसा रथ से नीचे उतरकर उनके साथ पैदल
ही चलने लगे।
उन लोगों में अनेक वृद्ध
ब्राह्मण भी थे। उन्होंने अनेक प्रकार से श्रीराम को मनाकर वापस ले चलने का प्रयास
किया, किन्तु उनकी कोई भी बात श्रीराम को अपने संकल्प से डिगा नहीं पाई।
इस प्रकार बढ़ते-बढ़ते
वे सब लोग तमसा नदी पर आ पहुँचे। ऐसा लग रहा था मानो वह नदी भी अपने तिरछे प्रवाह से
श्रीराम को रोकने का प्रयास कर रही थी। नदी के तट पर पहुँचकर सुमन्त्र ने रथ रोका और
घोड़ों को खोलकर टहलाया, पानी पिलाया और फिर उन्हें नहलाकर वहाँ पास ही चरने के लिए
छोड़ दिया।
तमसा नदी के उस रमणीय
तट पर बैठे श्रीराम ने अपने भाई लक्ष्मण से कहा, “सुमित्रानन्दन! तुम्हारा कल्याण हो।
यह हम सबके वनवास की पहली रात है। अब तुम्हें नगर का स्मरण करके उत्कंठित नहीं होना
चाहिए। इस सूने वन को तो देखो! वन के इन सारे पशु-पक्षियों का स्वर सुनकर लगता है,
जैसे वे हमें इस अवस्था में देखकर खिन्न हो रहे हैं।”
“आज
अयोध्या में भी सारे लोग हमारे वनवास के विचार से शोकाकुल होंगे, इसमें कोई संशय नहीं
हैं। मुझे अपने माता-पिता के लिए बड़ा शोक हो रहा है। कहीं हमारे वियोग में निरन्तर
रोते रहने से वे अंधे न जाएँ। भाई भरत बड़े धर्मात्मा हैं। जब मैं उनके कोमल स्वभाव
का स्मरण करता हूँ, तो माता-पिता के प्रति मेरी चिन्ता कम हो जाती है क्योंकि मुझे
विश्वास है कि भरत निश्चय ही धर्म के मार्ग पर चलेंगे और पिताजी को व मेरी माता को
भी सांत्वना देंगे।”
“लक्ष्मण!
मेरे साथ वन में आकर तुमने बड़ा महत्वपूर्ण कार्य किया है क्योंकि तुम न आते तो मुझे
सीता की रक्षा के लिए कोई सहायक ढूँढना पड़ता।”
“सुमित्रानन्दन!
इस वन में अनेक प्रकार के जंगली फल-मूल प्राप्त हो सकते हैं, किन्तु मुझे यही उचित
प्रतीत होता है कि आज की रात मैं केवल जल पीकर ही बिताऊँ।”
लक्ष्मण से ऐसा कहकर
श्रीराम ने सुमन्त्र से भी कहा, “सौम्य! अब आप घोड़ों की रक्षा पर ध्यान दें। उनकी ओर
से असावधान न रहें।”
तब सूर्यास्त हो जाने पर सुमन्त्र ने घोड़ों को लाकर बाँध दिया और उनके आगे बहुत-सा
चारा डालकर वे पुनः श्रीराम के पास आ गए।
संध्या-पूजन करने पर
जब लक्ष्मण और सुमन्त्र ने देखा कि अब रात घिर आई है, तो उन्होंने तमसा के तट पर वृक्ष
के पत्तों से श्रीराम जी के शयन के योग्य स्थान आसन बना दिया। थके हुए श्रीराम और सीता
दोनों कुछ ही देर में उस शय्या पर सो गए। उनके साथ आये हुए प्रजाजन उनसे कुछ दूरी पर
सोये हुए थे। श्रीराम के गुणों की चर्चा करते हुए सुमन्त्र और लक्ष्मण रात-भर जागते
रहे।
सूर्योदय से कुछ समय
पूर्व ही तड़के ही श्रीराम उठ गए और प्रजाजनों को सोता हुआ देख लक्ष्मण से बोले, “सुमित्राकुमार!
इन नगरवासियों को देखो। इन्हें केवल हमारी चाह है। हमारे प्रेम के लिए इन्होंने अपने
घरों को भी त्याग दिया है। इनके निश्चय को देखकर ऐसा लगता है कि ये लोग अपने प्राण
त्याग देंगे किन्तु वापस नहीं लौटेंगे। अतः इनके जागने से पूर्व ही हमें रथ पर सवार
होकर शीघ्रतापूर्वक यहाँ से चले जाना चाहिए। जब इन्हें हम लोग दिखाई नहीं देंगे, तो
विवश होकर ये भी अपने घरों को लौट जाएँगे और तब इन्हें इस प्रकार वृक्षों की जड़ों के
पास ऐसे कष्ट में नहीं सोना पड़ेगा। राजकुमारों का कर्तव्य है कि अपनी प्रजा को कष्ट
से मुक्त करें, न कि अपना दुःख देकर उन्हें भी दुःखी बना दें।”
यह बात सुनकर लक्ष्मण
ने कहा, “आर्य! मैं आपके विचार से सहमत हूँ। आप शीघ्र ही रथ पर सवार हो जाइये।”
तब श्रीराम ने सुमन्त्र
को रथ तैयार करने को कहा। आज्ञा पाते ही सुमन्त्र ने घोड़ों को रथ में जोता और उन तीनों
को लेकर तीव्रता से तमसा नदी के उस पार एक महामार्ग पर जा पहुँचे।
तब नगरवासियों को भुला
देने के लिए श्रीराम ने सुमन्त्र से यह बात कही, “सारथे! हम लोग यहीं उतर जाते हैं,
किन्तु आप रथ को पहले उत्तर दिशा की ओर दो घड़ी तक ले जाइये और फिर दूसरे मार्ग से यहीं
वापस लौटा लाइये। जैसे भी हो सके, इस बात का प्रयत्न कीजिए कि उन लोगों को मेरा पता
न चले।”
यह सुनकर सारथी ने वैसा
ही किया और दो घड़ी तक उत्तर दिशा की ओर ले जाकर रथ को वापस लेकर श्रीराम के पास लौटा।
तब वे तीनों पुनः रथ पर आरूढ़ हुए और वन की ओर चल दिए।
(आगे अगले भाग में…स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस)
जय श्रीराम✍️पं रविकांत