वाल्मीकि रामायण (भाग 16): आगामी अध्याय और महत्वपूर्ण कथा
सीता के साथ श्रीराम
व लक्ष्मण अब अपने पिता का दर्शन करने के लिए गए। उन दोनों भाइयों के धनुष व अन्य आयुध
लेकर दो सेवक भी उनके साथ-साथ चल रहे थे। उन आयुधों को फूल-मालाओं से सजाया गया था
एवं चन्दन आदि से अलंकृत किया गया था।
उनके आने का समाचार सुनकर
अयोध्या के नर-नारी उन्हें देखने के लिए उमड़ पड़े। प्रासादों, राजभवनों, छतों आदि में
लोगों की भीड़ उन्हें देखने के लिए जुट गई। सड़कों पर भी दोनों ओर लोग ही लोग खड़े थे।
श्रीराम को अपनी पत्नी
सीता व भाई लक्ष्मण के साथ इस प्रकार पैदल जाते देख बहुत-से लोगों का हृदय शोक से व्याकुल
हो उठा। वे कहने लगे, “हाय! जिनके पीछे विशाल चतुरङ्गिणी सेना चलती थी, आज वे श्रीराम
अकेले पैदल जा रहे हैं और उनके पीछे केवल सीता व लक्ष्मण हैं। जो ऐश्वर्य का सुख भोग
रहे थे, वे श्रीराम अब पिता के वचन की आन रखने के लिए वन के कष्ट भोगने जा रहे हैं।
पहले जिस सीता को आकाश में विचरने वाले प्राणी भी नहीं देख पाते थे, उसे आज सड़कों पर
खड़े लोग भी इस प्रकार देख रहे हैं। वन के कष्ट, गर्मी, सर्दी, वर्षा अब शीघ्र ही सीता
के कोमल अंगों की कान्ति को फीका कर देंगे।”
“अवश्य
ही राजा दशरथ किसी पिशाच के अधीन हो गए हैं, अन्यथा कौन पिता इस प्रकार अपने पुत्र
को घर से निकाल सकता है? पुत्र यदि गुणहीन हो, तब भी माता-पिता उसे घर से निकालने का
साहस नहीं कर पाते हैं, फिर श्रीराम जैसे सद्गुणी पुत्र को वनवास देने का तो कोई विचार
भी कैसे कर सकता है? श्रीराम तो दया, विद्या, शील, संयम और विवेक के गुणों से परिपूर्ण
हैं। अतः उनकी इस अवस्था को देखकर हम सब भी अत्यंत कष्ट पा रहे हैं।”
“चलो
अब हम लोग भी लक्ष्मण की भाँति श्रीराम का ही अनुसरण करें और वे जिस मार्ग से जा रहे
हैं, उसी पर अब हम भी चलें। बाग-बगीचे, घर-द्वार, खेती-बाड़ी सब छोड़ दें, अपने आँगन
खोदकर घर में गड़ी सारी निधि निकाल लें, धन-धान्य व अन्य आवश्यक वस्तुएँ साथ ले लें
और इस नगर से चले जाएँ।”
“इन
घरों में सब ओर धूल भर जाएगी, चूहे बिलों से निकलकर दौड़ लगाने लगेंगे, न कभी यहाँ झाड़ू
लगेगी, न पानी रहेगा और न आग जलेगी, न इन घरों में देवताओं का वास रहेगा, न कोई यज्ञ,
होम, जप या मंत्रपाठ होंगे। पूरा नगर ऐसा हो जाएगा, मानो यहाँ बड़ा भारी अकाल पड़ा है।
फिर कैकेयी आकर इन घरों पर अधिकार कर ले व यहाँ शासन करे। जहाँ श्रीराम होंगे, वह वन
भी हमारे लिए नगर जैसा ही है।”
श्रीराम ने लोगों की
ऐसी बातें सुनीं, किन्तु उनके मन में कोई विकार नहीं आया। वे उसी शांत भाव से आगे बढ़ते
हुए रानी कैकेयी के भवन में पहुँचे।
वहाँ पहुँचकर उन्होंने
देखा कि बहुत-से वीर योद्धा शोक से व्याकुल होकर वहाँ खड़े हैं। दुःखी सुमन्त्र भी पास
ही खड़े थे। उनके पास पहुँचकर श्रीराम ने अपने आगमन की सूचना पिताजी के पास भिजवाने
को कहा।
सुमन्त्र यह सूचना लेकर
भीतर पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि महाराज दशरथ शोक से व्याकुल होकर श्रीराम का ही
चिन्तन कर रहे थे। सुमन्त्र ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और कहा, “महाराज! आपके
पराक्रमी पुत्र श्रीराम अपना सारा धन प्रजा को दान करके इस समय आपके द्वार पर खड़े हैं।
वन में जाने से पहले वे आपका दर्शन करना चाहते हैं, अतः आप भी श्रीराम को जी भरकर देख
लीजिए।”
यह सुनकर व्याकुल दशरथ
जी ने कहा, “सुमन्त्र! यहाँ मेरी जो कोई भी स्त्रियाँ हैं, उन सबको बुलाओ। उन सबके
साथ मैं श्रीराम को देखना चाहता हूँ।” उसी के अनुसार सुमन्त्र अन्तःपुर में जाकर उन
सब स्त्रियों को बुला लाए। महारानी कौसल्या को चारों ओर से घेरकर वे साढ़े तीन सौ स्त्रियाँ
उस भवन में आ गईं।
तब दशरथ जी ने सुमन्त्र
से कहा, “अब मेरे पुत्र को ले आओ।”
आज्ञा पाकर सुमन्त्र
गए व श्रीराम, लक्ष्मण व सीता को भीतर बुला लाए। अपने पुत्र को दूर से ही हाथ जोड़कर
आता हुआ देख महाराज सहसा अपने आसन से उठ खड़े हुए। उसी क्षण राजभवन में “हा राम! हा
राम!” कहती उन सैकड़ों दुखी स्त्रियों का भीषण आर्तनाद भी गूँज उठा।
श्रीराम को देखते ही
महाराज उनकी ओर दौड़े, किन्तु उन तक पहुँचने से पहले ही मूर्छित होकर गिर पड़े। श्रीराम
और लक्ष्मण ने तेजी से दौड़कर उन्हें उठाया व सहारा देकर पलंग पर बिठा दिया। दशरथ जी
की यह अवस्था देखकर सीता के साथ-साथ श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई भी रो पड़े।
कुछ समय बाद जब महाराज
सचेत हुए, तब श्रीराम ने हाथ जोड़कर उनसे कहा, “पिताजी! आप हम सबके स्वामी हैं। मैं
अब दण्डकारण्य को जा रहा हूँ और आपकी आज्ञा लेने आया हूँ। आप मुझे आशीर्वाद दीजिए।
मेरे साथ लक्ष्मण व सीता को भी वन में जाने की अनुमति दीजिए। मैंने अनेक कारण बताकर
इन दोनों को रोकने की बहुत चेष्टा की है, किन्तु ये दोनों यहाँ नहीं रहना चाहते।”
यह सुनकर दशरथ जी बोले,
“वत्स राम! मैं कैकेयी को दिए हुए वरदान के कारण इस संकट में पड़ गया हूँ। तुम मुझे
कैद करके स्वयं ही अयोध्या के राजा बन जाओ।”
इस पर श्रीराम ने विनम्रता
से कहा, “महाराज! मुझे राज्य लेने की कोई इच्छा नहीं है। मैं तो अब वन में ही निवास
करूँगा व आपकी प्रतिज्ञा पूरी करके चौदह वर्षों बाद पुनः लौटकर आपको प्रणाम करने आऊँगा।”
श्रीराम को तुरंत वन
भेजने के लिए रानी कैकेयी बार-बार महाराज को संकेत कर रही थी। अंततः आर्तभाव से रोते
हुए दशरथ जी ने श्रीराम से कहा, “तात! तुम्हारे निश्चय को बदलना तो अब मेरे लिए भी
असंभव है, किन्तु केवल एक रात के लिए तुम और रुक जाओ। केवल एक और दिन मैं तुम्हें देखने
का सुख उठा लूँ, फिर प्रातःकाल तुम यहाँ से वन को चले जाना।”
“बेटा
रघुनन्दन! मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम्हारा वन में जाना मुझे प्रिय नहीं
है। यह रानी कैकेयी राख में छिपी हुई अग्नि के समान निकली। इसने अपने क्रूर अभिप्राय
को मन में छिपा रखा था और वरदान का दुरुपयोग करके इसने मेरे साथ ऐसा भयंकर विश्वासघात
किया है।”
श्रीराम ने रात भर ठहरने
का अनुरोध नहीं माना। वे बोले, “पिताजी! मुझे राज्य की कोई कामना नहीं है। मैंने तो
केवल अपना कर्तव्य मानकर ही राज्य को ग्रहण करने की अभिलाषा की थी। आप इस प्रकार आँसू
मत बहाइये। कैकेयी के दोनों वरदान पूरे करके सत्यवादी बनिए।”
“न
मुझे राज्य की कामना है, न सुख की, न पृथ्वी की, न स्वर्ग की और न मुझे इस जीवन की इच्छा है। मेरे मन में केवल एक
ही इच्छा है कि कोई आपको झूठा न कह सके। अतः आप मुझे इसी क्षण वन में जाने दीजिए और
अयोध्या में भरत का राज्याभिषेक कीजिए। कृपया अपने शोक को मन में दबा लीजिए क्योंकि
मैं अब एक क्षण भी यहाँ नहीं ठहर सकता। वन में जाने का मेरा निश्चय अटल है।”
यह सब सुनकर दशरथ जी
ने दुःख और संताप से पीड़ित होकर पुनः श्रीराम को कसकर गले लगा लिया और पुत्र से विछोह
के कष्ट से वे रोते-रोते पुनः अचेत हो गए। यह देखकर कैकेयी के अतिरिक्त अन्य सभी रानियाँ
रो पड़ीं।
उस दृश्य से विचलित होकर
सुमन्त्र भी रोते-रोते मूर्च्छित हो गए तथा वहाँ हाहाकार मच गया
होश में आने पर सुमन्त्र
अचानक उठकर खड़े हो गए। उनकी आँखें लाल हो गई थीं और वे क्रोध से काँप रहे थे। वे दोनों
हाथों से अपने सिर को पीटने लगे और राजा दशरथ की अवस्था को देखकर कैकेयी से उन्होंने
यह तीखे वचन कहे, “देवी! जब तुमने स्वार्थ के लिए अपने पति का ही त्याग कर दिया, तो
अब संसार में ऐसा कोई कुकर्म नहीं है, जो तुम न कर सको।”
“इस
कुल की यह परंपरा है कि राजा की मृत्यु हो जाने पर उसका सबसे ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य
का उत्तराधिकारी होता है। तुम तो महाराज दशरथ के जीवित रहते हुए ही इस परंपरा को मिटा
देना चाहती हो। तुम अवश्य अपने पुत्र भरत को राजा बना लो, किन्तु हम सब लोग तो वहीं
जाएँगे जहाँ श्रीराम रहेंगे।”
“सभी
बंधु-बांधव और सदाचारी ब्राह्मण भी इस राज्य का त्याग कर देंगे। फिर ऐसे राज्य से तुम्हें
क्या आनंद मिलेगा? तुम ऐसा मर्यादाहीन कृत्य क्यों करना चाहती हो? श्रीराम वन को चले
जाएँगे, तो सारे संसार में तुम्हारी बड़ी निन्दा होगी। श्रीराम के अतिरिक्त कोई भी राजा
इस नगर में तुम्हारे अनुकूल आचरण नहीं कर सकता। अतः यही उचित है कि तुम श्रीराम को
राज्य का पालन करने दो और स्वयं निश्चिन्त होकर बैठो।”
ऐसी कई बातें सुमन्त्र
जी ने कैकेयी को बार-बार समझाईं, किन्तु वह टस से मस नहीं हुई। उसके मन में न तो कोई
क्षोभ हुआ, न दुःख।
यह देखकर आँसू बहाते
हुए दशरथ जी सुमन्त्र से बोले, “सूत! तुम शीघ्र ही रत्नों से भरी-पूरी चतुरङ्गिणी सेना
को श्रीराम के पीछे-पीछे जाने की आज्ञा दो। अपने मधुर वचन बोलने वाली और अपने सुन्दर
रूप से आजीविका चलाने वाली स्त्रियों को, व्यापार में कुशल वैश्य राजकुमारों को और
श्रीराम के पास रहकर अपने पराक्रम से उनको प्रसन्न रखने वाले मल्लों को भी अनेक प्रकार
का धन देकर श्रीराम के साथ जाने की आज्ञा दो। सभी मुख्य आयुध, नगर के निवासी, वन के
रहस्यों को जानने वाले व्याध (शिकारी) आदि भी उनके साथ जाएँ। श्रीराम निर्जन वन में
निवास करने जा रहे हैं, अतः मेरा खजाना और अन्न भण्डार भी इनके साथ भेजा जाए। श्रीराम
को संपूर्ण मनोवांछित भोगों से संपन्न करके यहाँ से भेजा जाए। वे वन के पावन प्रदेशों
में यज्ञ करेंगे, आचार्यों आदि को पर्याप्त दक्षिणा देंगे और ऋषियों से मिलकर प्रसन्नतापूर्वक
वन में रहेंगे। भरत अयोध्या का पालन करेंगे।”
यह सब सुनकर कैकेयी को
बड़ी चिंता हुई। उसका मुँह सूख गया और गला रुंध गया। वह दुखी होकर बोली, “महाराज! यदि
इस राज्य की समस्त धन-संपदा राम के साथ भेज दी जाएगी, तो यहाँ भरत के लिए क्या रह जाएगा?
ऐसे धनहीन व सूने राज्य को भरत कदापि ग्रहण नहीं करेंगे।”
यह सुनकर दशरथ जी क्रोधित
हो गए। उन्होंने कहा, “अनार्ये! अहितकारिणी! जब तूने राम के लिए वनवास माँगा, तब तो
यह नहीं कहा था कि उन्हें अकेले ही वन को जाना होगा। अब ऐसी बातें कहकर मुझे क्यों
और अधिक पीड़ा दे रही है?”
तब कैकेयी भी क्रोधित
होकर दशरथ जी को धिक्कारने लगी।
यह सब देखकर वहाँ उपस्थित
सभी लोग लज्जा से गड़ गए किन्तु कैकेयी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। तब राजा के वयोवृद्ध
प्रधानमंत्री सिद्धार्थ ने कैकेयी से कहा, “देवी ! जिस व्यक्ति का कोई दोष नहीं है,
उसे दण्ड देना अथवा उसका त्याग करना धर्म-विरुद्ध है। हमें तो श्रीराम में कोई दोष
या अवगुण दिखाई नहीं देता। यदि तुम्हें दिखता हो, तो हमें बताओ कि वह क्या दोष है।
अन्यथा उनके राज्याभिषेक में इस प्रकार बाधा न डालो। ऐसे धर्मविरोधी कर्म से तुम्हें
कोई लाभ नहीं होगा, केवल लोकनिन्दा ही मिलेगी।”
सिद्धार्थ की यह बातें
सुनकर राजा दशरथ अत्यंत थके हुए, शोकाकुल स्वर में कैकेयी से बोले, “पापिनी! क्या तुझे
मेरे या अपने हित भी कोई चिंता नहीं है? तू ऐसे दुःखद मार्ग पर ही चलना चाहती है, तो
अब मैं भी यह राज्य, धन और सुख छोड़कर श्रीराम के पीछे चला जाऊँगा। ये सब लोग भी उन्हीं
के साथ जाएँगे। राजा भरत के साथ तू अकेली ही सुखपूर्वक राज्य भोगना।”
प्रधानमन्त्री सिद्धार्थ
की एवं अपने पिता दशरथ जी की इन बातों को सुनकर श्रीराम बोले, “राजन! मैं समस्त भोगों
का परित्याग कर चुका हूँ और आसक्ति छोड़ चुका हूँ। फिर मुझे सेना की क्या आवश्यकता है?
अब मुझे जंगल के फल-मूलों से ही जीवन निर्वाह करना है। मैं ये सारी वस्तुएँ भरत को
ही अर्पित कर रहा हूँ। मेरे लिए तो आप केवल चीर या वल्कल वस्त्र ही मंगवा दें। दासियों!
जाओ, खन्ती, कुदारी और खाँची ले आओ क्योंकि चौदह वर्षों तक वन में रहने के लिए ये वस्तुएँ
उपयोगी होंगी।”
कैकेयी तो समस्त संकोच
छोड़ ही चुकी थी। वह स्वयं ही जाकर बहुत-सा चीर ले आई और जन समुदाय के सामने ही श्रीराम
से बोली, “लो, पहन लो।”
तब श्रीराम और लक्ष्मण
दोनों भाइयों ने कैकेयी के हाथों से वल्कल वस्त्र लेकर धारण कर लिए और अपने महीन रेशमी
वस्त्र उतार दिए।
शुभलक्षणा सीता जी ने
भी कैकेयी के हाथ से वल्कल वस्त्र ले लिए किन्तु उन्हें पहनने के विचार से ही वे भयभीत
हो गईं। उनके मन में बड़ा दुःख हुआ और नेत्रों में आँसू भर आए। ऐसे वस्त्र पहनने का
अभ्यास न होने से वे ठीक से नहीं पहन पा रही थीं। अंततः लज्जित होकर उन्होंने एक वल्कल
अपने गले में डाल लिया और दूसरा हाथ में ही पकड़कर चुपचाप खड़ी रहीं। फिर उन्होंने अपने
पति से पूछा, “नाथ! वनवासी मुनि लोग यह चीर कैसे बाँधते है?” तब श्रीराम जल्दी से उनके
पास आकर अपने हाथों से उनके रेशमी वस्त्र के ऊपर ही वल्कल वस्त्र बाँधने लगे।
सीता को वह चीर पहना
रहे श्रीराम को देखकर अन्तःपुर की स्त्रियाँ अपने आँसू रोक नहीं पाईं। वे सब अत्यंत
खिन्न होकर श्रीराम से बोलीं, “बेटा! मनस्विनी सीता को वनवास की आज्ञा नहीं दी गई है।
तुम लक्ष्मण को साथी बनाकर वन में ले जाओ, किन्तु सीता को यहीं रहने दो। तुम तो अब
यहाँ नहीं रुकना चाहते, परन्तु इसे तो रहने दो, ताकि हम इसी को देखकर अपने मन को समझा
सकें।”
ऐसी बातें सुनते हुए
भी श्रीराम ने सीता को वह वल्कल वस्त्र पहना दिया।
सीता की वैसी अवस्था
को देखकर महर्षि वसिष्ठ की आँखों में भी आँसू भर आए। उन्होंने कैकेयी से कहा, “दुर्बुद्धि
कैकेयी! तू मर्यादा का उल्लंघन करके अधर्म की ओर पग बढ़ा रही है। तू केकयराज के कुल
पर जीता-जागता कलंक है। पहले तूने महाराज दशरथ को धोखा दिया, किन्तु अब तो तू सभी सीमाएँ
तोड़ रही है। देवी सीता वन में नहीं जाएँगी। पत्नी पुरुष की अर्द्धांगिनी होती है। सीता
भी श्रीराम की आत्मा है। अतः उनके स्थान पर अब सीता ही इस राज्य का पालन करेंगी।”
“यदि
सीता वन में जाएगी, तो हम लोग भी चले जाएँगे। सारे नगरवासी एवं अन्तःपुर के रक्षक भी
चले जाएँगे। भरत और शत्रुघ्न भी चीरवस्त्र धारण करके सबके साथ जाएँगे और वन में अपने
बड़े भाई श्रीराम की सेवा करेंगे। फिर तू इस सूनी अयोध्या में अकेली रहकर इस निर्जन
राज्य पर शासन करना। तू बड़ी दुराचारिणी है। यदि भरत भी राजा दशरथ से ही जन्मे हैं,
तो निश्चित ही वे इस प्रकार धोखे से मिलने वाले राज्य को कदापि स्वीकार नहीं करेंगे।
तूने अपने पुत्र का हित करने की इच्छा से वास्तव में उसे दुःख देने वाला कार्य ही किया
है क्योंकि संसार में ऐसा कोई नहीं है, जो श्रीराम का भक्त न हो।”
“देवी!
सीता तेरी पुत्रवधु है। उसे ऐसे वल्कल वस्त्र देना उचित नहीं। तूने केवल श्रीराम के
लिए वनवास माँगा था, सीता के लिए नहीं। अतः सीता के शरीर से वल्कल वस्त्र हटाए जाएँ
और यह राजकुमारी उत्तम वस्त्रों, आभूषणों आदि से विभूषित होकर सदा शृङ्गार धारण करके
वन में श्रीराम के साथ रहें। सीता को उनके मुख्य सेवकों, सवारियों, सब प्रकार के वस्त्रों
तथा आवश्यक उपकरणों के साथ वन की यात्रा पर भेजा जाए क्योंकि वनवास केवल श्रीराम के
लिए है, सीता के लिए नहीं।”
यह सब सुनकर भी सीता
वल्कल वस्त्र हटाने पर सहमत नहीं हुई क्योंकि उन्हें अपने प्रिय पति के समान ही वेशभूषा
धारण करने की इच्छा थी।
जब सीता पुनः चीरवस्त्र धारण करने लगीं, तो वहाँ उपस्थित सभी लोग चिल्लाकर
कहने लगे, “राजा दशरथ! तुम पर धिक्कार है।”
अब राजा दशरथ ने कैकेयी
से कहा, “कैकेयी! सीता ऐसे वस्त्र पहनकर वन में जाने योग्य नहीं है। वह सुकुमारी है
और सदा सुख में ही पली है। इसने किसी का क्या बिगाड़ा है? मैंने ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं
की थी कि सीता इस रूप में वन जाएगी और न मैंने ऐसा कोई वचन दिया है। अतः राजकुमारी
सीता संपूर्ण वस्त्रालंकारों से संपन्न होकर सब प्रकार के रत्नों के साथ वन को जा सकती
है।” वे
सिर झुकाए हुए बहुत देर तक ऐसी बातें कहते रहे और कैकेयी को वचन देने के लिए स्वयं
को धिक्कारने लगे।
तब श्रीराम ने उनसे कहा,
“पिताजी! मेरी यशस्विनी माता कौसल्या का स्वभाव अत्यंत उच्च व उदार है। वे कभी आपकी
निंदा नहीं करती हैं। इन्होने ऐसा भारी संकट पहले नहीं देखा है। अब मेरे चले जाने पर
ये शोक के सागर में डूब जाएँगी और निरंतर ही अपने इस बिछड़े हुए बेटे को देखने के लिए
व्याकुल रहेंगी। कहीं ऐसा न हो कि मेरे वियोग में इनके प्राण ही निकल जाएँ। अतः आप
मेरी माता को सदा सम्मानपूर्वक ऐसी परिस्थिति में रखें, जिससे इन्हें पुत्र शोक का
अनुभव न हो सके।”
श्रीराम की ऐसी बातें
सुनकर व उन्हें मुनिवेश में देखकर राजा दशरथ शोक संतप्त हो गए। उनकी आँखें भर आईं और
वे श्रीराम की ओर देख भी न सके, न कोई उत्तर दे सके। सहसा वे अचेत हो गए।
कुछ समय बाद होश आने
पर वे रोते हुए बोले, “ऐसा लगता है कि पूर्वजन्म में अवश्य ही मैंने बहुत-सी गौओं का
उनके बछड़ों से विछोह करवाया था या अनेक प्राणियों को कष्ट दिया था, तभी आज मेरे ऊपर
यह संकट आया है। समय पूरा हुए बिना किसी के प्राण नहीं निकलते हैं, तभी इतना क्लेश
पाकर भी मेरी मृत्यु नहीं हो रही है। इस वरदान की आड़ में अपना स्वार्थ साधने में लगी
कैकेयी के कारण ही सभी लोग इतने कष्ट में पड़ गए हैं।”
यह सब कहते-कहते वे पुनः
रोने लगे और बेहोश हो गए।
होश में आने पर महाराज
दशरथ आँसू भरे नेत्रों से सुमन्त्र की ओर देखकर उनसे बोले, “तुम सवारी के योग्य एक
रथ में उत्तम घोड़े जोतकर यहाँ ले आओ और श्रीराम को उस पर बिठाकर इस जनपद से बाहर तक
पहुँचा दो।”
फिर उन्होंने अपने कोषाध्यक्ष
को बुलाकर कहा, “तुम विदेहकुमारी सीता के पहनने योग्य बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण इतनी
संख्या में गिनकर शीघ्र ले आओ, जो चौदह वर्षों तक पहनने के लिए पर्याप्त हों।” शीघ्र ही कोषाध्यक्ष ने
भण्डार से वे सभी वस्तुएँ लाकर सीता को समर्पित कर दीं।
कुछ ही समय में सुमन्त्र
भी वहाँ आ गए और हाथ जोड़कर बोले, “महाराज! राजकुमार श्रीराम के लिए उत्तम घोड़ों से
जुता हुआ सुवर्णभूषित रथ तैयार है।”
(आगे अगले भाग में…स्रोत:
वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस)
जय श्रीराम✍️पं रविकांत