Culmination of sacrifice (त्याग की पराकाष्ठा )

                                        Culmination of sacrifice (त्याग की पराकाष्ठा )

नाटक की आखरी कड़ी

     अपना सामान समेटते हुए सौम्या अतीत में पहुँच जाती है...कितने अरमानों से ससुराल आई थी। कर्नल स्वराज्य को तो पहली नज़र में भा गई थी। भाभी नीरजा ने गाँठ बाँधी और तलाश ली देवरानी। अम्मा व पति शेखर को मनाना  बाएँ हाथ का खेल था। सेहरा बाँधे देवर को सजे हुए घोड़े पर सवार देख नीरजा निहाल हो गई।आरती उतारते गाने लगी,

" लो चली मैं, अपने देवर की बारात लेकर...। " 

मात्र तीन दिन प्रिया के आगोश में गुज़ारे थे स्वराज्य ने। सरहद से बुलावा आ गया। सौम्या की आँखों से गंगा जमुना बह चली। बाहों में भर नीरजा ने दिलासा दी, " मैं हूँ ना, तुम्हारी दीदी। "

अम्मा के पैर ज़मीन पर नहीं टिक रहे हैं, दोनों बहुएँ माँ जो बनने वाली हैं। अम्मा तालमेल जमाने में माहिर हैं। सुख भी अपना दुख भी अपना... सोचते पोपले मुख से गाने लगी... अवधपुरी के राजमहल में, जनम लेंगे श्रीराम...। 

जन्माष्टमी के दिन नीरजा  को बेटा मिला लेकिन सौम्या की बेटी जन्मते ही विदा हो गई। नीरजा,  देवकी बनकर बेटा सौम्या को सौपते हुए बोली, " तुम कृष्णम की यशोदा माँ हो। सूरत तो चाचू की पाई है लल्ला ने। "

अब कृष्णम की सारी जिम्मेदारियाँ सौम्या निभाने लगी। नीरजा को घर सम्भालने से फ़ुर्सत कहाँ ? 

दोनों में नोकझोंक चलती बेटे के भविष्य के संदर्भ में कि क्या बनेगा बड़ा होकर। अम्मा को मीठी तकरारों को विराम देना खूब आता , " हमारी आँखों का तारा है, आँखों से ओझल नहीं होने देंगे। क्यों, ठीक है न शेखर ? "

शेखर क्या जवाब दे ? वह तो स्वराज्य की शहादत की ख़बर बताने आया था। परिवार की खुशियों को नज़र ही लग गई ।

दिन, माह, वर्ष गुज़र गए। कृष्णम चिकित्सक बनकर विशेष अध्ययन हेतु अमेरिका जा रहा है।

सामान देख शेखर चुटकी लेते हैं, " अम्मा ! ज़रा देखना, आपकी बहुएँ कुछ भूली तो नहीं। "

अमेरिका में सहपाठिन राधिका मिलती है... भाषा भूषा में विदेशी, भोजन में ठेठ भारतीय। कृष्णम उसे हिंदी में भी पारंगत कर देता है।

आदतानुसार सारी बातें चाची माँ से साँझा करना कभी नहीं भूलता।

सौम्या खोद- खोदकर राधिका के बारे में पूछती रहती है।

दोनों के भारत आने से माँएँ  फूली नहीं समाती। तजुर्बेदार अम्मा शंकित हैं। किन्तु पोते की पसन्द  सर आँखों पर लेती है, " मिया बीबी राजी तो क्या करेगा  काज़ी "

 वे गुनगुनाती हैं...

" आओ सखियों मिल गाओ बधाई,

राम की बारात जनकपुर  आई "

शहनाइयाँ गूँजती हैं । नवविवाहित जोड़ा तफ़री पर निकल जाता है।  यकायक अम्मा के स्वर्गारोहण से परिवार का आधारस्तम्भ  ढह जाता है।

शेखर सलाह देते हैं," क्यूँ न स्वराज्य की स्मृति में अस्पताल की नींव रखें?" किन्तु राधिका को कूपमण्डूक बन रहना रास नहीं आता। कृष्णम का चाची माँ का पल्लू थामे उनके इर्द-गिर्द घूमना उसे पसन्द नहीं। मौका देख सासू माँ को भड़काती है, " आप बस कोल्हू के बैल की तरह घर के काम में जुती रहो। अरे ! बेटे के साथ सुकून से बैठ समय बिताओ। कुछ उनकी सुनिए कभी अपनी कहिए। "

नीरजा सोचती है, " बहु सच कहती है। बेटा मेरा और माँ कोई और कहलाए। उसको  एहसास कराना होगा कि वह चाची है, माँ नहीं। " 

परिवार की धुरी अम्मा के अभाव में सौम्या असहाय है। कैसे बिखराव को रोके ? भाभी अलग नाराज़। एक ही विकल्प है... वह सबसे दूर चली जाए। 

स्वराज्य की तस्वीर सूटकेस में रखती है। तभी बदहवास सा कृष्णम आकर  याचना करता है,  "आप सबको छोड़कर कैसे जा सकती हैं ? किसी ने कुछ कहा आपको ?  चलिए बैठिए आराम से कुर्सी पर। "

तल्ख़ी से आँखे तरेरती हुई राधिका से कहता है, " जल्दी से पानी लाओ। " राधिका भुनभुनाती है,    " जा रही थी अच्छी खासी, चमचू महाशय ने रोक लिया। "

सुबकते कृष्णम का गोद में रखा माथा सहलाते हुए  सौम्या आँसू रोक नहीं पाती। किन्तु अपने निर्णय पर अडिग है।  अरविन्दो आश्रम ही उसका गन्तव्य है।

अंदर नीरजा का क्रंदन जारी है,  " शेखर ! आप ही बताइए, कृष्णम को बीबी के लिए समय निकालना चाहिए या नहीं। जरूरी नहीं सारा दिन चाची माँ के ही तलुए चाटते रहो। मैंने तो अपने जिगर का टुकड़ा ही सौप दिया था। "  

शेखर के सामने सच्चाई बताने के सिवा और कोई चारा नहीं था,  " सुनो ! तुमने नहीं... सौम्या ने अपने बेटे से तुम्हारी गोद गुलज़ार की थी। बच्ची तुम्हारी कोख से जन्मी थी। और तुम दुबारा माँ भी नहीं बन सकती थी। "


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