वाल्मीकि रामायण: अद्भुत कथा और प्रेरणादायक संदेश (भाग 8)

Valmiki Ramayana (Part 8)  वाल्मीकि रामायण (भाग 8)

                                      

जनक जी की बात सुनकर महर्षि विश्वामित्र बोले, “राजन्! आप श्रीराम को अपना वह धनुष दिखाइए।

 

तब राजा जनक ने अपने मंत्रियों को आज्ञा दी, “चन्दन व मालाओं से सुशोभित वह दिव्य धनुष यहाँ ले आओ। आज्ञा सुनकर वे मंत्री तुरंत ही नगर में गए।

 

वह धनुष आठ पहियों वाले लोहे के एक बहुत बड़े सन्दूक में रखा हुआ था। पाँच हजार सैनिक उसे खींचते हुए वहाँ तक लाए।

 

अब महाराज जनक ने कहा, “ब्रह्मन! यही वह श्रेष्ठ धनुष है जिसका जनकवंशी नरेशों से सदा पूजन किया है तथा समस्त देवता, असुर, राक्षस, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर व महानाग भी जिसे चढ़ा नहीं सके हैं। फिर मनुष्यों में तो इतनी शक्ति ही कहाँ है?”

 

तब महर्षि विश्वामित्र ने श्रीराम से कहा, “वत्स राम! इस धनुष को देखो।

 

श्रीराम ने उस सन्दूक को खोलकर वह धनुष देखा और फिर वे बोले, “अब मैं इस दिव्य धनुष का स्पर्श करता हूँ और फिर मैं इसे उठाने व इस पर प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयास करूँगा।

 

महर्षि की आज्ञा पाकर श्रीराम ने उस धनुष को हाथ लगाया व बीच से उसे पकड़कर बड़ी सहजता से उठा लिया। इस समय हजारों मनुष्यों की दृष्टि उन्हीं पर टिकी हुई थी। अब श्रीराम ने इतनी सहजता से उस पर प्रत्यंचा चढ़ा दी, मानो वह कोई खिलौना हो। प्रत्यंचा चढ़ाकर उन्होंने उस धनुष को कान तक खींचा ही था कि अचानक ही वह धनुष बीच में ही टूट गया।

 

धनुष के टूटने पर बड़ी भारी आवाज हुई, जैसे कोई पर्वत फट पड़ा हो या कोई भूकंप आ गया हो। उस भयंकर आवाज को सुनकर बहुत सारे लोग अचेत हो गए।

 

थोड़ी देर में जब सब-कुछ शांत हो गया, तब राजा जनक ने हाथ जोड़कर मुनिवर विश्वामित्र से कहा, “भगवन्! आज मैंने दशरथनन्दन श्रीराम का पराक्रम अपनी आँखों से देख लिया। महादेव जी के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाना अत्यंत अद्भुत, अचिन्त्य व अतार्किक घटना है। मैंने सीता के विवाह के लिए जो प्रतिज्ञा की थी, वह आज सत्य व सफल हो गई। अब मैं प्राणों से भी प्रिय अपनी पुत्री सीता का विवाह दशरथ नन्दन श्रीराम से करूँगा। सीता भी श्रीराम को पति के रूप में पाकर मेरे वंश की कीर्ति का और विस्तार करेगी। अब आप कृपया आज्ञा दें, ताकि मेरे मंत्री शीघ्रता से अयोध्या जाकर महाराज दशरथ को यह समाचार दे सकें कि श्रीराम और लक्ष्मण महर्षि विश्वामित्र के साथ सकुशल मिथिला पहुँच गए हैं तथा श्रीराम का विवाह जनक नंदिनी सीता से होने जा रहा है, अतः महाराज दशरथ भी शीघ्रता से यहाँ आ जाएँ।

 

विश्वामित्र जी ने ‘तथास्तु कहकर उनकी बात का समर्थन किया। तब जनक जी ने अपनी मंत्रियों को उचित निर्देश दिए और तुरंत अयोध्या जाकर दशरथ जी को मिथिला ले आने के लिए भेज दिया।

राजा जनक की आज्ञा मिलते ही उनके मंत्री व दूत अयोध्या के लिए निकले। रास्ते में तीन रात विश्राम करते हुए वे चौथे दिन अयोध्या पहुँचे और उन्होंने वृद्ध महाराज दशरथ के दर्शन करके उन्हें मिथिला नरेश का संदेश सुनाया। उसमें जनक जी ने कहलवाया था कि ‘मैंने अपनी पुत्री सीता के विवाह के लिए जो प्रतिज्ञा की थी, उसे आपके पुत्र श्रीराम ने अपने पराक्रम से पूर्ण कर लिया है, अतः मैं अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार सीता का विवाह श्रीराम से करना चाहता हूँ। इसके लिए कृपया आप मुझे आज्ञा दें तथा अपने गुरु एवं पुरोहित के साथ आप भी शीघ्र यहाँ पधारें।

 

यह सन्देश सुनकर राजा दशरथ अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने महर्षि वसिष्ठ, वामदेव तथा अन्य मंत्रियों से कहा, “ऋषि विश्वामित्र के साथ राम व लक्ष्मण दोनों भाई विदेहपुरी में हैं। वहाँ राजा जनक ने राम के पराक्रम को प्रत्यक्ष देखा है, इसलिए वे अपनी पुत्री सीता का विवाह राम के साथ करना चाहते हैं। यदि आप लोगों की सहमति हो, तो हम सब लोग शीघ्र ही मिथिलापुरी को चलें।

 

यह सुनकर सभी ने एक स्वर में इसके लिए सहमति दी।

 

प्रातःकाल राजा दशरथ ने सुमन्त्र से कहा, “आज हमारे सभी धनाध्यक्ष (खजांची) बहुत-सा धन लेकर विभिन्न प्रकार के रत्नों के साथ सबसे आगे चलेंगे। उनकी रक्षा के लिए हर प्रकार की सुव्यवस्था होनी चाहिए। सारी चतुरंगिणी सेना भी यहाँ से शीघ्र ही कूच करे। सुन्दर पालकियाँ व अच्छे-अच्छे घोड़े आदि वाहन भी तैयार होकर चलें। वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि, कश्यप, मार्कण्डेय मुनि तथा कात्यायन, ये सभी ब्रह्मर्षि आगे-आगे चलेंगे। मेरा भी रथ तैयार करो। इसमें विलंब नहीं होना चाहिए। राजा जनक के दूत मुझे शीघ्रता से चलने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।

 

राजा की यह आज्ञा सुनते ही सेना तैयार हो गई और ऋषियों के साथ यात्रा करते हुए महाराज दशरथ मिथिला की ओर चले।

 

चार दिन का मार्ग तय करके वे सभी लोग मिथिला पहुँचे। वहाँ जनक जी ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया। राजा दशरथ को भी उनसे मिलकर बड़ा हर्ष हुआ। जनक जी बोले, “नरश्रेष्ठ! आपका स्वागत है! श्रीराम के पराक्रम से मेरा भी सौभाग्य जागा है और मेरे सभी विघ्न अब दूर हो गए हैं। रघुकुल के पुरुष बल और पराक्रम में सबसे श्रेष्ठ होते हैं। इस कुल के साथ संबंध जुड़ जाने से आज मेरे कुल का भी सम्मान बढ़ गया है। कल सबेरे इन सभी महर्षियों के साथ उपस्थित होकर मेरे यज्ञ की समाप्ति के बाद आप श्रीराम के विवाह का शुभ-कार्य संपन्न करें।

 

यह सुनकर दशरथ जी ने भी प्रसन्नता से इसकी सहमति दे दी।

 

उसी समय विश्वामित्र जी के साथ राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों का भी वहाँ आगमन हुआ और उन्होंने आदरपूर्वक अपने पिताजी के चरण छुए। सभी ने अत्यंत आनन्द से वह रात्रि व्यतीत की।

 

अगले दिन प्रातःकाल अपना यज्ञ पूरा करने के बाद जनक जी ने अपने पुरोहित शतानन्द जी से कहा, “ब्रह्मन्! मेरे महातेजस्वी एवं पराक्रमी भाई कुशध्वज इस समय इक्षुमती नदी के किनारे बसी सांकाश्या नगरी में निवास करते हैं। उसके चारों ओर के परकोटों की रक्षा के लिए बड़े-बड़े यंत्र लगाए गए हैं। वह नगरी पुष्पक विमान के समान विस्तृत एवं स्वर्गलोक के समान सुन्दर है। इस शुभ अवसर पर मैं अपने भाई को भी यहाँ देखना चाहता हूँ। मेरे साथ वह भी श्रीराम व सीता के विवाह का यह मंगल समारोह देखेंगे।

 

राजा की यह आज्ञा तुरंत ही उनके श्रेष्ठ दूतों तक पहुँचाई गई और तेज घोड़ों पर सवार होकर उनके दूत तुरंत ही कुशध्वज जी को बुलाने के लिए निकल पड़े। जनक जी का सन्देश मिलते ही राजा कुशध्वज भी उनकी आज्ञानुसार मिथिला में आ गए।

 

अब राजा जनक ने अपने मंत्री सुदाम को महाराज दशरथ के खेमे में यह सन्देश देकर भेजा कि ‘मिथिलापति विदेहराज जनक इस समय उपाध्याय और पुरोहित सहित आपका दर्शन करना चाहते हैं। यह सन्देश मिलते ही राजा दशरथ भी अपने मंत्रियों व ऋषियों के साथ वहाँ आ पहुँचे।

 

अब विवाह की बातचीत आरंभ हुई।

 

सबसे पहले राजा दशरथ के अनुरोध पर महर्षि वसिष्ठ ने सभा को श्रीराम की वंश परंपरा की जानकारी दी और अंत में उन्होंने राजा जनक से कहा, “इस महान इक्ष्वाकु वंश में जन्मे श्रीराम व लक्ष्मण के लिए मैं आपकी दो कन्याओं का वरण करता हूँ। ये दोनों भाई आपकी कन्यायों के योग्य हैं व आपकी कन्याएँ इनके योग्य हैं। अतः आप इस संबंध को स्वीकार करें।

 

ये वचन सुनकर अब राजा जनक बोले, “महर्षि! कन्यादान करने से पहले अपने कुल का भी पूरा परिचय देना उचित है, अतः कृपया आप भी हमारे कुल के बारे में सुनें। ऐसा कहकर उन्होंने भी अपनी कुल परंपरा की जानकारी दी। अंत में उन्होंने कहा, “मैं अपनी प्रथम पुत्री सीता का विवाह श्रीराम से और दूसरी पुत्री उर्मिला का विवाह लक्ष्मण से करवाने की सहमति दे रहा हूँ। मैं इस बात को तीन बार दोहराता हूँ क्योंकि इसमें अब कोई संशय नहीं है।

 

इसके बाद राजा जनक ने महाराज दशरथ से कहा, “राजन्! अब आप श्रीराम और लक्ष्मण के मंगल के लिए इनसे गोदान करवाइए और नान्दीमुख श्राद्ध का कार्य भी संपन्न कीजिए। उसके बाद विवाह का कार्य आरंभ कीजिएगा। आज मघा नक्षत्र है। आज से तीसरे दिन उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में वैवाहिक कार्य कीजिएगा। आज श्रीराम व लक्ष्मण के अभ्युदय के लिए गो, भूमि, तिल, स्वर्ण आदि का दान करवाना चाहिए क्योंकि वह अत्यंत शुभ होता है।

 

अब यह सब बातें सुनकर महर्षि विश्वामित्र राजा जनक से बोले, “ये दोनों ही कुल अतिश्रेष्ठ हैं और उनके बीच होने जा रहा यह विवाह संबंध भी रूप-वैभव सहित सभी दृष्टि से अत्यंत श्रेष्ठ है। मैं इस विषय में कुछ और भी कहना चाहता हूँ। आपके छोटे भाई राजा कुशध्वज भी यहाँ बैठे हैं। उनकी भी दो कन्याएँ हैं, जो अनुपम सुन्दरी हैं। मैं महाराज दशरथ के दो अन्य पुत्रों भरत व शत्रुघ्न के साथ उन कन्याओं के विवाह का प्रस्ताव करता हूँ।

 

महर्षि वसिष्ठ ने भी इस उत्तम विचार का अनुमोदन किया। महाराज दशरथ, राजा जनक, राजा कुशध्वज व अन्य सभी उपस्थित जनों ने भी इसके लिए सहमति दी। तब राजा जनक ने कहा, “आप जैसा कहते हैं, वैसा ही हो। कल पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र है व उसके अगले दिन उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र है। उसमें वैवाहिक कार्य करना बहुत उत्तम माना गया है।

 

यह बात सुनकर राजा दशरथ ने उत्तर दिया, “मिथिलेश्वर! आप दोनों भाइयों ने हम सबका भली-भांति सत्कार किया है। आपका कल्याण हो। अब हम अपने विश्राम-स्थल पर जाना चाहते हैं। वहाँ जाकर मैं विधिपूर्वक नान्दीमुख का श्राद्ध कार्य संपन्न करूँगा।

 

इस प्रकार जनक जी से आज्ञा लेकर राजा दशरथ, महर्षि वसिष्ठ, विश्वामित्र आदि सभी को साथ लेकर अपने आवास पर चले गए। वहाँ पहुँचकर अपराह्न काल में उन्होंने आभ्युदयिक श्राद्ध संपन्न किया व प्रातःकाल गोदान किया। अपने एक-एक पुत्र की मंगलकामना से उन्होंने एक-एक लाख गाएँ ब्राह्मणों को दान कीं। उन सब गायों के सींग सोने से मढ़े हुए थे। उन सबके साथ बछड़े व काँसे के दुग्ध्पात्र भी थे। इस प्रकार विवाह से पूर्व के सभी आवश्यक कार्य संपन्न हुए।

 

उसी दिन अचानक भरत के मामा केकय के राजकुमार युधाजित भी वहाँ आ पहुँचे।

 

आगे अगले भाग मे...स्रोत: वाल्मीकि रामायण। बालकाण्ड। गीताप्रेस

 

जय श्रीराम️पं रविकांत


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