वाल्मीकि रामायण (भाग 7): भगवान राम की कहानी का सबसे रोचक अंश

 

               Valmiki Ramayana (Part 7) -वाल्मीकि रामायण (भाग 7)

                            

 

श्रीराम लक्ष्मण को साथ ले महर्षि विश्वामित्र ने उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया। मुनिवर के साथ जाने वाले ब्रह्मवादी महर्षियों की सौ गाड़ियाँ भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं।

 

बहुत दूर तक का मार्ग तय कर लेने के बाद सूर्यास्त के समय उन सबने शोणभद्र (सोन नदी) के तट पर पड़ाव डाला। सूर्यास्त के बाद सभी ने स्नान करके अग्निहोत्र का कार्य पूर्ण किया। उसके बाद राम-लक्ष्मण सहित वे सभी ऋषि-मुनि महर्षि विश्वामित्र जी के सामने बैठ गए।

 

तब महर्षि विश्वामित्र ने यह कथा सुनाई - “पूर्वकाल में कुश नामक एक महातपस्वी राजा थे। विदर्भ देश की राजकुमारी उनकी पत्नी थी। उनके चार तेजस्वी पुत्र हुए: कुशाम्ब, कुशनाभ, असूर्तरजस तथा वसु। राजा कुश ने अपने इन सत्यवादी एवं धर्मनिष्ठ पुत्रों से कहा, “पुत्रों! प्रजा का पालन करो, इससे तुम्हें धर्म का पूरा फल प्राप्त होगा।

अपने पिता की बात सुनकर उन चारों पुत्रों ने अपने लिए अलग-अलग नगरों का निर्माण करवाया। कुशाम्ब ने कौशाम्बी नामक नगर बसाया, कुशनाभ ने महोदय नामक नगर का निर्माण करवाया, असूर्तरजस ने धर्मारण्य तथा वसु ने गिरिव्रज नगर की स्थापना की। यही गिरिव्रज नामक राजधानी वसुमती के नाम से प्रसिद्ध हुई है और उसके चारों ओर ये पाँच पर्वत सुशोभित हैं। यह रमणीय नदी दक्षिण-पश्चिम की ओर से बहती हुई इस मगध देश में आई है, इसलिए यहाँ इसेसुमागधिभी कहा जाता है। इसके दोनों ओर बहुत उपजाऊ खेत हैं।

 

राजा कुशनाभ ने घृताची नामक अप्सरा के गर्भ से सौ कन्याओं को जन्म दिया था। युवावस्था में एक बार वायुदेव के कोप से वे कन्याएँ वातरोग के कारण कुबड़ी हो गईं। इस कुब्जता के कारण उनका सारा सौन्दर्य नष्ट हो गया उनकी दशा अत्यंत दयनीय हो गई। तब महर्षि चूली के पुत्र राजा ब्रह्मदत्त ने उनका यह रोग दूर किया और राजा कुशनाभ ने ब्रह्मदत्त से ही उन सब कन्याओं का विवाह करवा दिया।

 

विवाह के बाद सभी सौ कन्याओं के चले जाने से राजा कुशनाभ संतानहीन हो गए। अतः उन्होंने पुत्रप्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ का अनुष्ठान किया। उस यज्ञ से उनके यहाँ गाधि नामक पुत्र का जन्म हुआ। वही राजा गाधि मेरे पिता थे। कुश के कुल में जन्म लेने के कारण मैं कौशिक कहलाता हूँ।

 

मेरी एक बड़ी बहन भी थी, जिसका नाम सत्यवती था। उसका विवाह ऋचीक मुनि से हुआ था। अपने पति का अनुसरण करने वाली मेरी बहन सशरीर स्वर्गलोक को चली गई। उसी के नाम से महानदी कौशिकी इस भूतल पर प्रवाहित होती है।

 

अपनी बहन सत्यवती से मेरा बहुत स्नेह था। अतः उसी का स्मरण करके मैं हिमालय के तट पर कौशिकी नदी के तट पर सुख से निवास करता हूँ। यज्ञ संबंधी नियम की सिद्धि के लिए ही मैं उस स्थान को छोड़कर यहाँ सिद्धाश्रम (बक्सर) आया था। अब तुम्हारे तेज से मुझे वह सिद्धि प्राप्त हो गई है।

 

हे नरश्रेष्ठ! अब आधी रात बीत गई है, अतः तुम अब विश्राम करो। अधिक जागरण के कारण हमारी यात्रा में विघ्न नहीं पड़ना चाहिए।यह सुनकर सभी ने उन्हें प्रणाम किया और शयन के लिए चले गए।

 

अगले दिन सुबह सभी लोग वहाँ से आगे बढ़े। दोपहर होते-होते उन सभी ने गंगा जी के तट पर पहुँचकर उस पुण्यसलिला भागीरथी का दर्शन किया। उन सबने वहीं अपना डेरा डाला और फिर विधिवत् स्नान करके देवताओं पितरों का तर्पण किया। इसके बाद अग्निहोत्र करके अमृत जैसे स्वादिष्ट हविष्य का भोजन किया।

 

भोजन के उपरांत वे सभी लोग पुनः विश्वामित्र जी को चारों ओर से घेरकर बैठ गए। तब श्रीराम ने विश्वामित्र जी से पूछा, “भगवन्! मैं यह सुनना चाहता हूँ कि तीन मार्गों से प्रवाहित होने वाली यह गंगाजी किस प्रकार तीनों लोकों में घूमकर अंततः समुद्र में जा मिलती हैं।यह सुनकर महर्षि ने उन्हें गंगाजी की उत्पत्ति की कथा बताई।

 

वह कथा समाप्त होते-होते दिन भी बीत गया था। तब विश्वामित्र जी बोले, “श्रीराम! महाराजा इक्ष्वाकु के ही वंशज राजा सुमति यहाँ निकट ही विशाला नगरी में शासन करते हैं। आज की रात्रि हम लोग वहीं व्यतीत करेंगे और फिर कल प्रातःकाल यहाँ से चलकर मिथिला में राजा जनक का दर्शन करेंगे।

 

राजा सुमति की राजधानी विशाला नगरी में रात्रि व्यतीत करने के बाद अगले दिन प्रातःकाल वे लोग मिथिला की ओर बढ़े। मिथिला में पहुँचने पर जनकपुरी की सुन्दर शोभा देखते ही सबकी थकान दूर हो गई।

 

मिथिला के उपवन में एक पुराना आश्रम था, जो अत्यंत रमणीय होकर भी सुनसान दिखाई दे रहा था। उसे देखकर श्रीराम ने मुनिवर विश्वामित्र जी से पूछा, “भगवन्! यह कौन-सा स्थान है? देखने में तो यह आश्रम जैसा लगता है, किंतु यहाँ एक भी मुनि दिखाई नहीं दे रहे हैं। इसका क्या कारण है?”

 

तब महर्षि बोले, “रघुनन्दन! पूर्वकाल में यह स्थान महात्मा गौतम का आश्रम था। वे अपनी पत्नी अहल्या के साथ रहकर यहाँ तपस्या करते थे। उस समय यह आश्रम बड़ा ही दिव्य प्रतीत होता था।

 

एक दिन जब महर्षि गौतम आश्रम में नहीं थे, तो उनका वेश बनाकर इन्द्र वहाँ आए और अहल्या से समागम की इच्छा प्रकट की। अहल्या ने इन्द्र को पहचान लिया था, पर उसे कौतुहल हुआ किस्वयं देवराज इन्द्र मुझे चाहते हैं!’ और इस कारण उसने समागम का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

 

रति के पश्चात उसने इन्द्र से कहा, “सुरश्रेष्ठ! मैं आपके समागम से कृतार्थ हो गई, किंतु अब आप शीघ्र ही यहाँ चले जाइये और महर्षि गौतम के कोप से हम दोनों की रक्षा कीजिये।

 

तब इन्द्र ने भी हँसते हुए उत्तर दिया, “सुन्दरी! मैं भी आज संतुष्ट हो गया। मैं जैसा आया था, वैसा ही अब चला जाऊँगा।यह कहकर इन्द्र कुटी से बाहर निकले और गौतम ऋषि के लौट आने की आशंका के कारण उतावली में वहाँ से भागे।

 

लेकिन तभी गौतम ऋषि ने उन्हें देख लिया। इन्द्र भय से थर्रा उठे और ऋषि के मन में भयंकर रोष छा गया। क्रोधित होकर उन्होंने इन्द्र को शाप दे दिया।

 

अपनी पत्नी अहल्या को भी शाप देते हुए उन्होंने कहा, “दुराचारिणी! तू भी अब उपवास करके अनेक वर्षों तक इस आश्रम में अकेली ही निवास करेगी। जब दशरथ कुमार राम इस घनघोर वन में पदार्पण करेंगे, तब उनका आतिथ्य सत्कार करने से तेरे लोभ-मोह आदि दूर होंगे और तब तू पुनः लौटकर मेरे पास सकेगी।ऐसा कहकर महातपस्वी गौतम इस आश्रम को छोड़कर हिमालय में चले गए और वहीं तपस्या करने लगे।

महातेजस्वी श्रीराम! अब तुम महर्षि गौतम के आश्रम पर चलो और इन देवरूपिणी महाभागा अहल्या का उद्धार करो।यह वचन सुनकर श्रीराम ने महर्षि विश्वामित्र के पीछे-पीछे चलकर उस आश्रम में प्रवेश किया।

 

वहाँ उन्होंने देखा कि देवी अहल्या अपनी तपस्या से देदीप्यमान हो रही हैं। दोनों भाइयों ने वहाँ पहुँचकर उनके चरणों का स्पर्श किया। महर्षि गौतम के वचनों का स्मरण करके अहल्या ने ही भी दोनों भाइयों का आतिथ्य सत्कार किया। यह दृश्य देखकर देवता भी बहुत हर्षित हुए। गन्धर्वों और अप्सराओं ने उत्सव मनाया और आकाश से फूलों की वर्षा की। अपने शाप से मुक्त होकर देवी अहल्या पुनः गौतम ऋषि के पास लौट गई।

 

इसके बाद श्रीराम और लक्ष्मण भी मुनि विश्वामित्र के साथ आगे बढ़े। गौतम ऋषि के आश्रम से ईशान कोण की ओर चलकर वे लोग मिथिलानारेश के यज्ञमंडप में पहुँचे। वहाँ उन्हें यज्ञ समारोह का बड़ा मनमोहक दृश्य दिखाई दिया। अनेक देशों से सहस्त्रों ब्राह्मण वहाँ जुटे हुए थे और वेदों का स्वाध्याय कर रहे थे। महर्षि विश्वामित्र ने भी एकांत स्थान देखकर वहाँ डेरा डाला।

 

महाराजा जनक को जैसे ही विश्वामित्र जी के आगमन का समाचार मिला, वे तुरंत अपने पुरोहित शतानन्द को साथ लेकर उनके स्वागत के लिए पहुँचे। उनका स्वागत-सत्कार करने के बाद जनक जी ने कहा, “महर्षि! यज्ञस्थल पर आपके चरण पड़ने से आज मैं धन्य हो गया। आपने यहाँ आकर मुझ पर बहुत बड़ी कृपा की है। ऋत्विजों का कहना है कि मेरी यज्ञदीक्षा के बारह दिन अब शेष रह गए हैं। अतः कृपया आप यहीं रहकर बारह दिनों बाद यहाँ आने वाले देवताओं का दर्शन कीजिएगा।

 

फिर उन्होंने आगे पूछा, “महामुनि! आपके साथ पधारे ये दोनों वीर राजकुमार कौन हैं? ये सुन्दर कमल पुष्पों के समान सुशोभित हैं, किंतु सिंह के समान प्रभावी दिखाई पड़ते हैं और हाथी के समान मन्दगति से चलते हैं। ये तलवार, तरकस और धनुष धारण किए हुए हैं तथा इनका मनोहर रूप तो देवताओं को भी लज्जित करता है। मैं आपसे इनका परिचय जानना चाहता हूँ।

 

यह सुनकर विश्वामित्र जी ने दोनों भाइयों का परिचय दिया और अयोध्या से उन्हें लेकर चलने से अब तक का सारा वृत्तांत भी संक्षेप में सुनाया। इसके बाद महर्षि ने कहा, “राजन्! आपके यहाँ रखे धनुष के बारे में कुछ जानने की इच्छा से ये दोनों यहाँ तक आए हैं।

 

यह सुनकर महातपस्वी शतानन्द जी रोमांचित हो उठे। वे गौतम ऋषि के बड़े पुत्र थे। उन्होंने महर्षि विश्वामित्र से कहा, “मुनिवर! मेरी यशस्विनी माता अहल्या बहुत दिनों से तपस्या कर रही थीं। क्या आपने राजकुमार श्रीराम को उनका दर्शन कराया? क्या मेरी माता ने इनका आदर-सत्कार किया? क्या मेरी माता अंततः शापमुक्त होकर पिताजी से मिल पाईं?” ये सब प्रश्न सुनकर महर्षि विश्वामित्र ने उन्हें आश्वस्त किया कि वह कार्य पूर्ण हो गया है और देवी अहल्या अब गौतम ऋषि के पास वापस लौट गई हैं।

 

यह जानकर महातेजस्वी शतानन्द जी बहुत संतुष्ट हुए। उन्होंने श्रीराम से कहा, “नरश्रेष्ठ! आपका स्वागत है। यह मेरा अहोभाग्य है कि आपने महर्षि के साथ यहाँ तक पधारने का कष्ट उठाया। महर्षि विश्वामित्र की कान्ति असीम है। मैं आपको उनके बल स्वरूप का यथार्थ वर्णन करता हूँ।इसके बाद पुरोहित शतानन्द जी ने वहाँ उपस्थित सभी लोगों को महर्षि विश्वामित्र के जीवन की पूरी कथा सुनाई।

 

उनकी बात समाप्त होने पर विदेहराज जनक ने विश्वामित्र जी से कहा, “मुनिश्रेष्ठ! यज्ञ का समय हो गया है, सूर्यास्त होने वाला है। अतः अब मुझे जाने की आज्ञा दें। मैं प्रातःकाल पुनः आपके दर्शन करने आऊँगा।ऐसा कहकर वे वहाँ से विदा हुए। तत्पश्चात महर्षि विश्वामित्र भी राम-लक्ष्मण के साथ अपने विश्राम-स्थल पर लौट आए।

 

अगले दिन प्रातःकाल राजा जनक ने महर्षि विश्वामित्र के साथ ही दोनों भाइयों को भी आमंत्रित किया। उनका स्वागत करके जनक जी ने पूछा, “हे महर्षि! आप मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं आपकी क्या सेवा करूँ?”

 

तब विश्वामित्र जी बोले, “महाराज! राजा दशरथ के ये दोनों पुत्र विश्वविख्यात क्षत्रिय वीर हैं। आपके यहाँ जो श्रेष्ठ धनुष रखा है, ये उसे देखने की इच्छा रखते हैं। आप कृपया वह धनुष इन्हें दिखा दीजिए। इससे उनकी इच्छा पूर्ण हो जाएगी और उस धनुष के दर्शन से संतुष्ट होकर ये दोनों अपनी राजधानी को लौट जाएँगे।

 

यह सुनकर जनक जी ने कहा, “भगवन्! मैं आपको उस धनुष का वृत्तांत सुनाता हूँ और उसे यहाँ किस प्रयोजन से रखा गया है, वह भी बताता हूँ। एक बार भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए देवताओं ने उन्हें यह धनुष अर्पित किया था। उनसे यह मेरे पूर्वज महाराज देवरात को प्राप्त हुआ और तब से यह धरोहर के रूप में रखा हुआ है।

 

एक दिन यज्ञ के लिए भूमि शोधन करते समय मैं खेत में चल रहा था। उसी समय हल के अग्रभाग से जोती गई भूमि से एक कन्या प्रकट हुई। सीता (हल के द्वारा खींची गई रेखा) से उत्पन्न होने के कारण उसका नाम सीता रखा गया। पृथ्वी से प्रकट हुई मेरी वह कन्या धीरे-धीरे बढ़कर सयानी हो गई। मैंने यह निश्चय किया है कि जो भी वीर अपने पराक्रम से इस धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा देगा, उसी के साथ मैं अपनी पुत्री सीता का विवाह करूँगा।

 

आज तक कई राजाओं ने आकर सीता का हाथ माँगा है, किंतु उनमें से कोई भी इस धनुष को हिला भी नहीं पाया है। आपकी आज्ञानुसार मैं वह धनुष श्रीराम लक्ष्मण को भी दिखाऊँगा। यदि दशरथकुमार श्रीराम उस धनुष को उठाकर उसकी प्रत्यंचा चढ़ा दें, तो मैं अपनी कन्या सीता का हाथ इनके हाथों में दे दूँगा।

 

यह सुनकर महर्षि विश्वामित्र बोले, “राजन्! आप श्रीराम को अपना वह धनुष दिखाइए।

 

तब जनक के अपने मंत्रियों को आज्ञा दी, “चन्दन मालाओं से सुशोभित वह दिव्य धनुष यहाँ ले आओ।

 

आगे अगले भाग मेंस्रोत: वाल्मीकि रामायण। बालकाण्ड। गीताप्रेस)

 

                                 जय श्रीराम

                                                              ✍पं रविकांत

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