"बुराई अपने मन में है: आत्मचिंतन और सुधार का मार्ग"
एक व्यक्ति गंगा के किनारे-किनारे जा रहे थे। उन्होंने देखा कि एक जवान उम्र की लड़की है और चालीस वर्ष का पुरुष। आपस में हँस रहे हैं। लड़की एक गिलास दे रही है और पुरुष पीने जा रहा है। उस देखने वाले व्यक्ति के मन में आया कि देखो गंगा के तट पर भी ये पाप की भावना करते हैं। यह स्त्री और वह पुरुष। ये हँस रहे हैं।
इनके मन में पाप आ गया। यह शराब का गिलास दे रही है और वे पुरुष पीने जा रहे हैं। यह उसने सोच लिया। थोड़ी देर में वहाँ एक नाव निकली। नदी में एक भंवर था। उस भंवर में नाव फंस गयी। नाव डगमगायी और उसमें पानी आ गया। वह उलट गयी। उसमें बीसों आदमी थे। गिलास को फेंक दिया और तुरंत उस नदी में कूद पड़ा। बड़ी मुश्किल से अपनी जान को जोखिम में डालकर उसने उन आदमियों को बचा लिया।
अब देखने वाला सोचने लगा कि भाई, क्या बात है ? अगर वह व्यभिचारी था, शराबी था, कामी था, तो इतना त्यागी कैसे था कि अपनी जान जोखिम में डालकर, प्राणों पर खेलकर उसने इतने लोगों को बचा लिया। यह बात कैसे हुई ? उसे सन्देह हो गया अपने विचार पर। वह पास आया और पूछने लगा कि आप कौन हैं ?
उन्होंने कहा, यह बात तो पीछे करना। अभी हमारी सहायता करो। इन लोगों के पेट में पानी भर गया है। पहले इसे निकालें। इस प्रकार उसे भी सेवा में संयुक्त कर लिया। वह लड़की भी सेवा करने लगी। तीनों सेवा में जुट गये। अब कुछ देर बाद जब सब ठीक हो गया तब पूछा, आप कौन हैं ? यह लड़की कौन है ? संदेह मन में था ही।
उन्होंने उत्तर दिया-यह मेरी बेटी है। ससुराल से आज ही आयी है। हम बगल के गाँव में रहते हैं। घूमते-घूमते, बात करते हुए गंगाजी के किनारे आ गये। यह हँस-हँसकर अपने घर की बात सुना रही थी और मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही थी। इतने में मुझे प्यास लगी। मैंने कहा, जा बेटी, गंगाजल तो ले आ। यह गंगाजल का गिलास ले आयी। मैं पीने जा रहा था कि इतने में नाव आ गयी।
अब उसने सोचा-'देख, तू कितना बड़ा पापी है। शराब और व्यभिचार तो तेरे मन में था। तेरे मन में, तेरे मस्तिष्क में शराब था, व्यभिचार था। इस पवित्र गंगाजल में तूने शराब की भावना की। पवित्र बाप-बेटी के विशुद्ध व्यवहार में व्यभिचार की भावना की। तू पवित्र कहाँ है। तेरे मन में तो अभी तक कलुष भरा है। ऐसा बहुत दफा होता है। हम लोग अपने मन का पाप, अपने-आप की बुराई दूसरे पर आरोपित कर देते हैं और हम दोषी मान लेते हैं।'