वाल्मीकि रामायण (भाग - 13): अगला अध्याय और कथा का अवलोकन
रात बीती और
पुष्य नक्षत्र में
राज्याभिषेक का शुभ
मुहूर्त आ गया। अपने शिष्यों
के साथ महर्षि
वसिष्ठ राज्याभिषेक की
आवश्यक सामग्री लेकर
राजा दशरथ के अंतःपुर में पहुंचे।
उन्होंने मंत्री सुमन्त्र
से कहा, "सूत!
तुम शीघ्र जाकर
महाराज को मेरे आगमन की
सूचना दो।"
"उन्हें
बताओ कि श्रीराम
के राज्याभिषेक के
लिए सारी सामग्री
एकत्र कर ली गई है।
गंगाजल से भरे कलश ला
लिए गए हैं। सोने के
कलशों में समुद्र
का जल भी आ गया
है। अभिषेक के
लिए गूलर की लकड़ी का
भद्रपीठ बनाया गया
है, जिस पर बिठाकर श्रीराम
का राज्याभिषेक होगा।
सब प्रकार के
बीज, गन्ध, कई
प्रकार के रत्न,
शहद, दही, खील,
कुश, फूल, दूध,
आठ सुंदरी कन्याएं,
गजराज, चार घोड़ोंवाला
रथ, चमचमाता खड्ग,
उत्तम धनुष, पालकी,
श्वेत छत्र, चंवर,
सोने की झारी,
स्वर्णमाला से अलंकृत
ऊंचे डील वाला
श्वेत पीतवर्ण का
वृषभ, चार दाढ़ों
वाला सिंह, उत्तम
अश्व, सिंहासन, व्याघ्रचर्म,
समिधाएं, अग्नि, सब
प्रकार के वाद्य,
वारांगनाएं, सौभाग्यवती स्त्रियां, आचार्य,
ब्राह्मण, गौ, पवित्र
पशु-पक्षी, देश-देश के
प्रसिद्ध व्यापारी और उनके सेवक तथा
बड़ी संख्या में
प्रजाजन प्रसन्नतापूर्वक श्रीराम
के राज्याभिषेक के
लिए उपस्थित हैं।
तुम महाराज से
शीघ्र चलने को कहो, ताकि
यह शुभ मुहूर्त
बीत न जाए।"
वसिष्ठ जी की
यह बात सुनकर
सुमन्त्र राजा दशरथ
के पास गए। राजा का
आदेश था कि सुमन्त्र को कभी भी उनके
पास आने से रोका न
जाए, अतः वे सीधे ही
महाराज के कक्ष में जा
पहुंचे।
उन्हें राजा के
दुःख का पता न था।
अतः उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक
दशरथ जी से कहा, "महाराज! श्रीराम
के राज्याभिषेक की
तैयारी पूर्ण हो
गई है और सब आपके
आगमन की प्रतीक्षा
कर रहे हैं।"
यह सुनकर दशरथ
जी का शोक और भी
बढ़ गया। उन्होंने
कहा, "तुम यह
बात कहकर मेरी
पीड़ा को और अधिक क्यों
बढ़ा रहे हो?"
सुमन्त्र को इस
बात से बड़ा अचंभा हुआ।
वे समझ नहीं
पाए कि इस पर क्या
कहें।
तभी कैकेयी बोली,
"सुमन्त्र! श्रीराम के राज्याभिषेक
के हर्ष से महाराज सारी
रात सो नहीं पाए हैं।
अत्यधिक थकावट के
कारण इन्हें नींद
आ गई है। तुम तुरंत
जाओ और श्रीराम
को यहां बुला
लाओ।"
तब सुमन्त्र ने कहा,
"भामिनी! मैं महाराज
की आज्ञा के
बिना कैसे जा सकता हूं?"
इस पर दशरथ
जी बोले, "सुमन्त्र!
मैं सुन्दर श्रीराम
को देखना चाहता
हूं। तुम शीघ्र
ही उसे यहां
ले आओ।"
राजा की यह
आज्ञा सुनते ही
सुमन्त्र तुरंत श्रीराम
को बुलाने के
लिए निकल पड़े।
वे यह भी सोचते जा
रहे थे कि न जाने
क्यों कैकेयी इस
प्रकार श्रीराम को
शीघ्र बुलाने की
उतावली कर रही थी।
श्रीराम के महल
में पहुंचकर उन्होंने
देखा कि बड़ी संख्या में
नगरवासी श्रीराम के
लिए उपहार लेकर
द्वार पर खड़े हैं। श्रीराम
की सवारी में
उपयोग किया जाने
वाला शत्रुञ्जय नामक
सुन्दर गजराज भी
वहां था। राजा
के अनेक प्रमुख
मंत्री भी सुन्दर
वस्त्राभूषणों से विभूषित
होकर हाथी, घोड़े
और रथों पर वहां आए
हुए थे।
उन सबको एक
ओर हटाकर सुमन्त्र
ने श्रीराम के
भवन में प्रवेश
किया।
सब लोगों को
एक ओर हटाकर
सुमन्त्र ने श्रीराम
के महल में प्रवेश किया।
वहाँ भीड़ बिल्कुल
भी नहीं थी।
एकाग्रचित्त एवं सावधान
युवक प्रास (भाला)
और धनुष लेकर
श्रीराम की सुरक्षा
में डटे हुए थे। उनके
कानों में शुद्ध
सोने के कुण्डल
झिलमिला रहे थे।
ड्योढ़ी में सुमन्त्र
को गेरुआ वस्त्र
पहले और हाथ में छड़ी
लिए वस्त्राभूषणों से
अलंकृत अनेक वृद्ध
पुरुष दिखाई दिए।
वे अन्तःपुर की
स्त्रियों के संरक्षक
थे। सुमन्त्र को
आता देख तत्काल
वे सब उठकर खड़े हो
गए। सुमन्त्र ने
उनसे कहा, “आप
लोग शीघ्र जाकर
श्रीरामचन्द्र से कहें
कि सुमन्त्र द्वार
पर खड़े हैं।”
सन्देश मिलते ही
श्रीराम ने अपने पिता के
उस अन्तरंग सेवक
को अन्तःपुर में
ही बुला लिया।
वहाँ पहुँचकर सुमन्त्र ने
देखा कि वस्त्राभूषणों
से अलंकृत श्रीरामचन्द्रजी
सोने से बने पलंग पर
बैठे हैं। उनके
अंगों में सुगन्धित
चंदन का लेप लगा हुआ
है। देवी सीता
भी उनके पास
ही बैठी हैं।
उन्हें प्रणाम करके
सुमन्त्र ने कहा,
“श्रीराम! इस समय
रानी कैकेयी के
साथ बैठे हुए
आपके पिताजी तुरंत
आपको देखना चाहते
हैं। अतः आप वहाँ चलिये,
विलंब न कीजिये।
यह सुनकर श्रीराम
अपनी पत्नी सीता
से बोले, “देवी!
लगता है कि पिताजी और
माता कैकेयी दोनों
मिलकर मेरे बारे
में ही कुछ विचार कर
रहे हैं। निश्चय
ही मेरे अभिषेक
से संबंधित कोई
बात हो रही होगी। माता
कैकेयी सदा ही मेरा भला
चाहती हैं। मेरे
अभिषेक का समाचार
सुनकर वे अत्यंत
प्रसन्न हुई होंगी।
अतः वे महाराज
को मेरा अभिषेक
जल्दी करने को कह रही
होंगी। अवश्य ही
महाराज आज ही मुझे युवराज
पद पर अभिषिक्त
करेंगे। मैं शीघ्र
जाकर उनका दर्शन
करता हूँ।”
ऐसा कहकर श्रीराम
अपने कक्ष से बाहर निकले।
वहाँ उन्होंने द्वार पर
भाई लक्ष्मण को
विनीत भाव से हाथ जोड़कर
खड़े देखा। इससे
आगे बढ़ने पर बीच वाले
कक्ष में आकर वे अपने
मित्रों से मिले और सबसे
बाहर वाले कक्ष
में अन्य प्रार्थी
जनों से मिलकर
वे व्याघ्रचर्म से
आवृत्त, अपने शोभाशाली
तेजस्वी रथ पर आरूढ़ हुए।
उस रथ की घरघराहट मेघों की
गम्भीर गर्जना के
समान सुनाई पड़ती
थी। वह बहुत विस्तृत था और मणियों एवं
स्वर्ण से विभूषित
था। उसमें उत्तम
घोड़े जुते हुए
थे। श्रीराम के
भाई लक्ष्मण भी
हाथ में चँवर
लेकर उस रथ पर बैठ
गए और पीछे से अपने
ज्येष्ठ भ्राता की
रक्षा करने लगे।
श्रीराम को आता
देख नगरवासी भी
भारी संख्या में
अपने घरों से बाहर निकल
आये और उनके पीछे-पीछे
चलने लगे। उनके
आगे कवच आदि से सुसज्जित
और खड्ग व धनुष धारण
किये हुए अनेक
शूरवीर योद्धा चल
रहे थे। पूरे
मार्ग में घरों
की खिड़कियों से
महिलाएं उन पर पुष्पवर्षा कर रही थीं।
इस प्रकार बढ़ते
हुए वे राजा दशरथ के
भवन में आ पहुँचे।
महाराज दशरथ का
वह महल अनेक
रूप-रंग वाली
उज्ज्वल अट्टालिकाओं से
सुशोभित था। उसमें
रत्नों की जाली से विभूषित
तथा विमान के
आकार वाले विलासगृह
बने हुए थे। वह भवन
इतना ऊँचा था,
मानो आकाश को भी लांघ
रहा हो। अपने
पिता के महल में पहुँचने
पर श्रीराम ने
धनुर्धर वीरों द्वारा
सुरक्षित उस महल
की तीन ड्योढ़ियों
को रथ से ही पार
किया। अंतिम दो
ड्योढ़ियाँ उन्होंने पैदल पार
कीं।
महल में पहुँचकर
श्रीराम ने पिता को कैकेयी
के साथ एक सुन्दर आसन
पर बैठे देखा।
वे विषाद में
डूबे हुए थे। उनका मुँह
सूख गया था और वे
बड़े दयनीय दिखाई
दे रहे थे। श्रीराम ने उन्हें
व रानी कैकेयी
को प्रणाम किया।
उस दीनदशा से
ग्रस्त राजा दशरथ
केवल एक बार ‘राम!’ कह
पाए और चुप हो गए।
उनके नेत्रों में
आँसू भर गए। उनका वह
अभूतपूर्व भयंकर रूप
देखकर श्रीराम को
भी भय हो गया। राजा
दशरथ शोक और संताप से
दुर्बल हो रहे थे। उनके
चित्त में बड़ी व्याकुलता थी। श्रीराम
सोचने लगे कि उनकी व्यथा
का कारण क्या
हो सकता है।
अंततः उन्होंने कैकेयी से
ही पूछा, “माता!
पिताजी तो क्रोधित
होने पर भी मुझे देखते
ही सदा प्रसन्न
हो जाते थे,
किन्तु आज ऐसी क्या बात
हो गई कि मुझे देखकर
इन्हें इतना कष्ट
हो रहा है? कहीं अनजाने
में मुझसे कोई
अपराध तो नहीं हो गया
है अथवा इन्हें
कोई शारीरिक रोग
या मानसिक चिंता
तो नहीं पीड़ित
कर रही है? कहीं तुमने
तो इन्हें कोई
कठोर बात नहीं
कह दी, जिससे
इनका मन दुखी हो गया
है?”
तब कैकेयी बोली,
“राम! महाराज कुपित
नहीं हैं और न इन्हें
कोई कष्ट हुआ
है। इनके मन में एक
बात है, किन्तु
तुम्हारे भय से
ये कह नहीं पा रहे
हैं। पहले तो इन्होने मेरा सत्कार
करते हुए मुझे
मुँहमाँगा वरदान दे
दिया और अब ये गँवार
मनुष्यों की भांति
उसके लिए पछता
रहे हैं। इन्होने
जिस बात के लिए मुझसे
प्रतिज्ञा की है,
उसका तुम्हें अवश्य
पालन करना चाहिए
अन्यथा कहीं ऐसा
न हो कि आज तुम्हारे
मोह के कारण महाराज सत्य
को ही छोड़ बैठें। वह
बात चाहे शुभ
हो या अशुभ,
पर तुम यदि उसे पूर्ण
करने का वचन दो, तभी
मैं तुम्हें वह
बता सकती हूँ।”
यह सुनकर श्रीराम
के मन में बड़ी व्यथा
हुई। उन्होंने कहा,
“धिक्कार है देवी!
तुम्हें मेरे बारे
में ऐसा संदेह
नहीं करना चाहिए।
महाराज मेरे गुरु,
पिता और हितैषी
हैं। उनकी प्रतिज्ञा
पूरी करने के लिए मैं
कुछ भी कर सकता हूँ।
उन्हें जो अभीष्ट
है, वह मुझे बताओ।”
तब कैकेयी ने
कहा, “देवासुर संग्राम
में मैंने तुम्हारे
पिता की रक्षा
की थी और प्रसन्न होकर उन्होंने
मुझे दो वर दिए थे।
उनमें से पहला वर मैंने
यह माँगा है
कि भरत का राज्याभिषेक हो और दूसरा यह
माँगा है कि आज ही
तुम्हें दण्डकारण्य में
भेज दिया जाए।”
“तुम्हारे राज्याभिषेक के लिए यह जो
सारी तैयारी की
गई है, इससे
अब भरत का राज्याभिषेक होना चाहिए
और तुम्हें आज
ही जटा और चीर धारण
करके चौदह वर्षों
के लिए दण्डकारण्य
में चले जाना
चाहिए।”
“महाराज बस इतनी-सी बात
से दुखी हैं
कि तुम्हारे वन
में जाने से इन्हें तुम्हारे
वियोग का कष्ट सहना पड़ेगा,
किन्तु श्रीराम! तुम
राजा की इस आज्ञा का
पालन करो, ताकि
इनकी प्रतिज्ञा झूठी
न हो जाए।”
इतने कठोर वचन
सुनकर भी श्रीराम
के हृदय में
कोई शोक नहीं
हुआ, किन्तु महाराज
दशरथ अपने पुत्र
के वियोग का
विचार करके और अधिक दुखी
एवं व्यथित हो
उठे।
(आगे अगले भाग में…)
जय श्रीराम✍️पं रविकांत