वाल्मीकि रामायण (भाग 2): भगवान राम की कथा का महत्वपूर्ण अध्याय

                                                      वाल्मीकि रामायण (भाग 2)

valmiki ramayana,valmiki ramayan,ramayana,valmiki ramayana in hindi,valmiki ramayana for kids,balmiki ramayana,valmiki,valmiki ramayana pdf,valmiki ramayana iitk,valmiki ramayana book,valmiki ramayana audio,ramayan,valmiki ramayana slokas,valmiki ramayana in tamil,balmiki ramayan,original valmiki ramayana,who wrote valmiki ramayana,valmiki ramayana gita press,valmiki ramayana sanskrit pdf,valmiki ramayana pdf in english,valmiki ramayana original book


महाराज दशरथ इस बात से हमेशा दुःखी और चिंतित रहते थे कि उनका कोई पुत्र नहीं था।


यही सब सोचते-सोचते एक दिन उनके मन में विचार आया कि क्यों न पुत्र प्राप्ति के लिए मैं अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करूँ। उन्होंने अपने सभी मंत्रियों को बुलाकर इस बारे में उनसे परामर्श लिया और सबने इसके लिए सहमति दी।


तब दशरथ जी ने अपने मंत्री सुमंत्र से कहा, “तुम शीघ्र जाकर मेरे सभी गुरुजनों व पुरोहितों को यहाँ बुला लाओ।”


कुलपुरोहित महर्षि वसिष्ठ, सुयज्ञ, वामदेव, जाबालि, काश्यप आदि सबके आ जाने पर महाराज ने उनसे भी अपने मन की बात कही। यह विचार सुनकर वसिष्ठ जी ने इसकी बहुत प्रशंसा की। उन्होंने कहा, “ महाराज! यह बहुत अच्छा विचार है और चूँकि आपके मन में यह धार्मिक विचार पुत्र प्राप्ति की पवित्र कामना से उत्पन्न हुआ है, अतः आपका यह मनोरथ अवश्य ही पूर्ण होगा।” 

यह सुनकर दशरथ जी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने मंत्रियों को आज्ञा दी कि सरयू नदी के उत्तरी तट पर यज्ञभूमि का निर्माण हो और गुरुजनों की आज्ञा के अनुसार यज्ञ की सारी सामग्री वहाँ एकत्र की जाए। शक्तिशाली वीरों के संरक्षण में एक उपाध्याय सहित अश्व को छोड़ा जाए और सारे विघ्नों का निवारण करने के लिए शान्तिकर्म किया जाए। दशरथ जी ने यह भी कहा कि विद्वान ब्रह्मराक्षस ऐसे यज्ञों में विघ्न उत्पन्न करने का अवसर ढूँढते रहते हैं, इसलिए इस बात का पूरा ध्यान रखा जाए कि यज्ञ में कोई विघ्न न डाल सके और यज्ञ के सभी कार्य पूरे विधि-विधान के अनुसार संपन्न हों क्योंकि विधिहीन यज्ञ करने वाला यजमान अवश्य ही नष्ट हो जाता है।


यह आज्ञा पाकर सभी मंत्रीगण अपने-अपने कार्य के लिए चले गए और गुरुजनों ने भी दशरथ जी से विदा ली।


अब महाराज ने अपने महल में जाकर रानियों को बताया, “देवियों! दीक्षा ग्रहण करो। मैं पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ करूँगा।” यह सुनकर रानियों को बहुत प्रसन्नता हुई।


कुछ समय बाद एकांत पाकर सुमंत्र ने दशरथ जी से कहा, “महाराज! महर्षि कश्यप के पुत्र विभाण्डक हैं और उनके पुत्र ऋष्यश्रृंग हैं जो कि वेदों के सर्वश्रेष्ठ विद्वान हैं। उनका विवाह आपके मित्र व अंगदेश के राजा रोमपाद की पुत्री शांता से हुआ है। यदि महर्षि ऋष्यश्रृंग आकर आपका यह यज्ञ संपन्न करें, तो आपका मनोरथ अवश्य ही सफल होगा क्योंकि भगवान सनत्कुमार ने भी बहुत पहले ही ऐसी भविष्यवाणी की है। अतः आप स्वयं अंगदेश में जाकर महर्षि ऋष्यश्रृंग को सत्कारपूर्वक यहाँ ले आइए।


यह सलाह सुनकर राजा दशरथ को बहुत हर्ष हुआ। उन्होंने वसिष्ठजी से परामर्श किया और फिर अपनी रानियों तथा मंत्रियों के साथ अंगदेश को गए। वहाँ के राजा से उनकी गहरी मित्रता थी। अपने मित्र के यहाँ सात-आठ दिन बिताने के बाद दशरथ जी ने उनसे कहा कि ‘अयोध्या में एक बहुत आवश्यक कार्य आ पड़ा है, इसलिए महर्षि ऋष्यश्रृंग व उनकी पत्नी शांता को मेरे साथ अयोध्या जाने की अनुमति दें।’ इस प्रकार उन दोनों को साथ लेकर महाराज दशरथ अयोध्या लौटे।


बहुत समय बीत जाने के बाद वसंत ऋतु का आगमन हुआ। तब एक अच्छा मुहूर्त देखकर दशरथ जी ने यज्ञ करने का अपना विचार महर्षि ऋष्यश्रृंग को बताया और यज्ञ करवाने के लिए उनसे प्रार्थना की। महर्षि ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। अब यज्ञ के अश्व को छोड़ा गया और इधर राजा दशरथ ने अपने कुलगुरु वसिष्ठ जी से यज्ञ की तैयारी के लिए मार्गदर्शन माँगा।


तब वसिष्ठ जी ने यज्ञ के कार्यों में निपुण व यज्ञविषयक शिल्पकर्म में कुशल कारीगरों, बढ़इयों, शिल्पकारों, भूमि खोदने वालों, ज्योतिषियों, नटों, नर्तकियों, शास्त्रवेत्ताओं और सेवकों आदि सबको बुलवाया और उनसे यज्ञ के लिए आवश्यक प्रबंध करने को कहा।


उनके आदेश पर शीघ्र ही हजारों ईंटें यज्ञ-स्थल पर लाई गईं। यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए देश-विदेश से आने वाले राजाओं के ठहरने के लिए अनेक महल बनाने की आवश्यकता थी। यज्ञ में आने वाले ब्राह्मणों और अन्य प्रजाजनों के निवास और भोजन के लिए भी अनेक घर बनाए जाने थे। घोड़ों और हाथियों के लिए भी अस्तबल बनाने थे और सैनिकों के लिए छावनियाँ बनाई जानी थीं। वसिष्ठ जी ने यह भी आदेश दिया कि इन सभी स्थानों पर लोगों के भोजन और विश्राम की बहुत अच्छी व्यवस्था की जानी चाहिए। वह भोजन सबको सत्कारपूर्वक दिया जाना चाहिए, किसी की अवहेलना नहीं होनी चाहिए। क्रोध के कारण किसी का अपमान न किया जाए और जो शिल्पी तथा सेवक वहाँ कार्यरत हैं, उन सबके पारिश्रमिक व भोजन की भी उचित व्यवस्था हो।


इन सब बातों के बाद वसिष्ठ जी ने सुमंत्र को बुलावाया और उनसे कहा कि इस पृथ्वी के सभी धार्मिक राजाओं को और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र, सभी वर्णों के लोगों को यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया जाए।


वसिष्ठ जी ने सुमंत्र से कहा कि ‘सब देशों के अच्छे लोगों को तुम सत्कारपूर्वक यहाँ ले आओ। मिथिला के महाराज जनक हमारे बहुत पुराने संबंधी हैं, इसलिए तुम स्वयं जाकर बड़े आदरपूर्वक उन्हें यहाँ लाओ। काशी के राजा भी अपने स्नेही और मित्र हैं, इसलिए उन्हें भी तुम स्वयं जाकर ले आओ। केकय देश के बूढ़े राजा तो स्वयं हमारे दशरथ जी के ससुर हैं, इसलिए उन्हें और उनके पुत्र को विशेष सम्मान के साथ अयोध्या लाया जाए। इसी प्रकार अंगदेश के राजा रोमपाद, कोशलराज भानुमान और मगध के राजा प्राप्तिज्ञ को भी तुम स्वयं जाकर अपने साथ लाओ। पूर्वदेश के श्रेष्ठ नरेशों को, सिन्धु, सौवीर व सुराष्ट्र के भूपालों को तथा दक्षिण भारत के भी सभी श्रेष्ठ नरेशों को भी इस यज्ञ में आमंत्रित करो।’


कुछ दिनों के बाद ये सभी राजा लोग महाराज दशरथ के लिए बहुत-से रत्नों की भेंट लेकर उनके इस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए अयोध्या पहुँच गए।


यह सब होते-होते एक वर्ष बीत गया। यज्ञ की सारी तैयारियाँ अब पूर्ण हो चुकी थीं। यज्ञ का अश्व भी भूमण्डल में भ्रमण करके अयोध्या लौट आया था। अब महर्षि वसिष्ठ और ऋष्यश्रृंग के आदेश से एक शुभ नक्षत्र वाले दिन महाराज दशरथ यज्ञ के लिए अपने राजभवन से निकले। महर्षि ऋष्यश्रृंग के मार्गदर्शन में महाराज दशरथ व उनकी रानियों ने शास्त्रोक्त विधि से यज्ञ की दीक्षा ली और इस प्रकार यह यज्ञकर्म आरंभ हुआ।


महर्षि ऋष्यश्रृंग के मार्गदर्शन में श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने महाराज दशरथ के अश्वमेध महायज्ञ का प्रारंभ किया। वे सभी ब्राह्मण अत्यंत विद्वान थे, अतः यज्ञ के प्रत्येक कर्म को शास्त्रों में वर्णित क्रम के अनुसार व उचित रीति से करने में वे सक्षम थे। सबसे पहले उन्होंने शास्त्रोक्त विधि से प्रवर्ग्य का संपादन किया और फिर उपसद नामक अनुष्ठान किया। इसके बाद कर्मों के अंगभूत देवताओं का पूजन करके सवन किया गया और फिर इन्द्रदेव को विधिपूर्वक हविष्य का भाग अर्पित किया गया। सभी महर्षियों ने अत्यंत शुद्ध स्वर में मन्त्रों का गायन किया और सभी श्रेष्ठ देवताओं का आवाहन किया गया। सभी देवताओं को उनके योग्य हविष्य के भाग अर्पित किए गए। उस यज्ञ में न कोई भूल हुई, न कोई विपरीत या अयोग्य आहुति पड़ी। सभी कर्म निर्विघ्न पूर्ण हुए।


ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, तापस, श्रमण, बूढ़े, रोगी, स्त्री और बच्चे सभी को उस यज्ञ में यथेष्ट भोजन प्राप्त हुआ। वहाँ कोई भूखा-प्यासा नहीं रहा और सभी लोग भली-भांति तृप्त हुए। यज्ञ का एक सवन समाप्त होने के बाद अगला सवन शुरू होने तक जो खाली समय मिलता था, उसमें उत्तम ब्राह्मण एक-दूसरे से शास्त्रार्थ किया करते थे। वह यज्ञ संपन्न करवाने वाले सभी विद्वान बहुश्रुत तथा व्याकरण के सभी छः अंगों के ज्ञाता थे।


सूत्र-ग्रन्थों में दिए गए वर्णन के अनुसार ठीक माप वाली ईंटें तैयार कराई गई थीं। यज्ञकर्म के कुशल ब्राह्मणों ने अग्नि का चयन किया। उस अग्नि की आकृति गरुड़ जैसी बनाई गई थी।


इस यज्ञ के लिए बेल, खैर, और पलाश के साथ बिल्व के छः छः यूप खड़े किए गए। बहेड़े के वृक्ष का एक यूप खड़ा किया गया और दोनों बाहें फैलाने पर जितनी दूरी होती है, उतनी दूरी पर देवदार के दो यूप खड़े किए गए। यज्ञ की शोभा बढ़ाने के लिए उन सबमें सोना जड़ा गया था। इन सभी इक्कीस यूपों में से प्रत्येक की ऊँचाई इक्कीस अरन्ति (पाँच सौ चार अंगुल) थी और सभी को इक्कीस अलग-अलग कपड़ों से सजाया गया था। ये सब आठ कोणों से सुशोभित थे और उनकी आकृति सुन्दर व चिकनी थी। पुष्प-चंदन से उन सबकी पूजा की गई और उन्हें विधिपूर्वक स्थापित किया गया। उन यूपों में विभिन्न देवताओं के उद्देश्य से शास्त्रविहित पशु, सर्प और पक्षी बांधे गए थे। शामित्र कर्म में यज्ञीय अश्व और कूर्म आदि जलचर जन्तु भी यूपों में बांधे गए थे। सब मिलाकर उन यूपों में तीन सौ पशु बंधे हुए थे।


अश्वमेध का घोड़ा भी वहीं बांधा गया। महारानी कौशल्या ने चारों ओर से उस अश्व का प्रोक्षण आदि संस्कार करके तीन तलवारों से उसे स्पर्श किया। अध्वर्यु और उद्गाता ने राजा की क्षत्रिय महिषी कौसल्या, वैश्य स्त्री वावाता तथा शूद्रजातीय स्त्री परिवृत्ति के हाथों भी उस अश्व का स्पर्श करवाया। अब ऋत्विक ने विधिपूर्वक अश्वकन्द के गूदे को निकालकर शास्त्रोक्त रीति से पकाया। फिर उसे गूदे की आहुति दी गई और महाराज दशरथ को ठीक समय पर वहाँ आकर उस धुएँ की गंध को सूंघने के लिए कहा गया।


इसके बाद दशरथ जी ने दक्षिणा के रूप में होता को अयोध्या से पूर्व की दिशा का सारा राज्य दे दिया। अध्वर्यु को पश्चिम दिशा, ब्रह्मा को दक्षिण दिशा व उद्गाता को उत्तर दिशा की सारी भूमि दे दी। इस प्रकार विधिपूर्वक यज्ञ पूरा करके राजा दशरथ ने सारी भूमि ऋत्विजों को दान कर दी।


इस पर उन ऋत्विजों ने कहा कि ‘महाराज! केवल आप ही इस पृथ्वी की रक्षा करने में समर्थ हैं। हम सदा वेदों के अध्ययन में लगे रहते हैं और हमें इस भूमि से कोई प्रयोजन नहीं है। अतः इस भूमि की रक्षा आप ही करें और इसके बदले में हमें कोई और दक्षिणा दे दें।’ तब महाराज दशरथ ने उन्हें दस लाख गाएँ, दस करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ और चालीस करोड़ चांदी के सिक्के दान में दिए। उन ऋत्विजों ने वह सारा धन महर्षि ऋष्यश्रृंग व कुलगुरु वसिष्ठ को सौंप दिया। उन दोनों से उसका उचित बँटवारा करके न्यायपूर्वक सभी के बीच उसे बाँट दिया। सभी लोग इससे बहुत प्रसन्न हुए।


अब दशरथ जी ने हाथ जोड़कर मुनि ऋष्यश्रृंग से कहा, “मुनीश्वर! अब आप वह कर्म करें, जो मेरी कुल परम्परा को आगे बढ़ाने वाला हो।’ तब ‘तथास्तु’ कहकर मुनि थोड़ी देर तक ध्यानमग्न हो गए। कुछ समय बाद ध्यान से विरत होकर उन्होंने कहा, “राजन! आपको पुत्र की प्राप्ति कराने के लिए मैं अथर्ववेद के मन्त्रों से पुत्रेष्टि नामक यज्ञ करूँगा। वेदोक्त विधि के अनुसार अनुष्ठान करने पर अवश्य सफल होगा और आपका मनोरथ पूर्ण होगा। आपके चार पुत्र होंगे और वे इस कुल का भार वहन करने में सर्वथा सुयोग्य होंगे।”


ऐसा कहकर उन तेजस्वी ऋषि ने पुत्रेष्टि यज्ञ का आरंभ किया और श्रौत विधि के अनुसार अग्नि में आहुति डाली। यज्ञ में देवताओं का आवाहन किया गया और विधि के अनुसार अपना-अपना भाग ग्रहण करने के लिए देवता, सिद्ध, गंधर्व और महर्षिगण उस यज्ञ में एकत्र हुए।


वहाँ एकत्रित देवता अन्य लोगों की दृष्टि में अदृश्य थे। उन सभी देवताओं ने वहाँ ब्रह्माजी से निवेदन किया कि ‘भगवन्! आपसे वरदान पाकर रावण नाम का राक्षस हम सब लोगों को बहुत कष्ट दे रहा है। आपने प्रसन्न होकर उसे वर दे दिया है, लेकिन उस वरदान की शक्ति से वह अत्यधिक उद्दंड हो गया है और उसने तीनों लोकों में हाहाकार मचा दिया है। वह जिस किसी को भी अच्छी स्थिति में देखता है, उससे द्वेष करने लगता है। वह देवराज इन्द्र को भी परास्त करने की अभिलाषा रखता है।


ऋषियों, यक्षों, गन्धर्वों, असुरों व ब्राह्मणों को वह बहुत पीड़ा देता है और सबका अपमान करता फिरता है। वह देखने में भी बड़ा भयंकर है। हमें उसे देखकर बहुत भय होता है, किन्तु अपने पराक्रम से उसे दबाने की शक्ति हमारे पास नहीं है। अतः आपको ही उसके वध का कोई न कोई उपाय करना चाहिए।’


यह सुनकर ब्रह्माजी कुछ सोचकर बोले, ‘देवताओं! उस दुरात्मा के वध का उपाय मेरी समझ में आ गया है। वह मैं आपको बताता हूँ।’


आगे अगले भाग मे, स्रोत: वाल्मीकि रामायण। बालकाण्ड।

                                                        जय श्रीराम

                                                        ✍️पं रविकांत

Post a Comment (0)
Previous Post Next Post